पार्टी हित में राहुल की कम सक्रियता चाहते हैं कांग्रेस क्षत्रप

बताया जा रहा है कि अमरिन्दर सिंह अपनी मर्जी से पंजाब चुनाव का संचालन कर रहे हैं। उन्होंने पहले ही यह कह दिया था कि राहुल गांधी पंजाब में ज्यादा हस्तक्षेप न करें। वह जितने सक्रिय होंगे पार्टी को उतना ही नुकसान होगा।

अब यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पार्टी में अपनी भूमिका सीमित कर रही हैं। राहुल को वह सभी अवसर दे रही हैं जिनकी अपेक्षा राष्ट्रीय अध्यक्ष से होती है। हाल ही में आयोजित कांग्रेस के सम्मेलन का नाम भी कम दिलचस्प नही था। इस जन वेदना नाम दिया गया था। इस नामकरण से यह दिखाने का प्रयास हुआ कि देश के आमजन में वेदना है। यह वेदना ढाई वर्षों से उत्पन्न हुई है। पहले देश में सर्वत्र आनंद का वातावरण था। कांग्रेस के पास इस शब्द का जवाब नहीं है कि यदि उसके शासन में किसी प्रकार की वेदना नहीं थी तो उसे हार क्यों झेलनी पड़ी?

राहुल ने अज्ञातवास में कितना चिंतन किया यह वही जानें, लेकिन उन्हें यह चिंतन करना चाहिये कि नोटबंदी पर जमीन आसमान एक करने के बावजूद उन्हें जनसमर्थन क्यों नहीं मिला, क्या कारण है कि पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर और उत्तराखंड में हरीश रावत उनकी ज्यादा सक्रियता नहीं चाहते हैं। ये दोनों कांग्रेसी राहुल की सक्रियता में पार्टी का नुकसान क्यों देख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी। वह सपा के युवराज बने अखिलेश यादव की साइकिल रोकना चाहते थे। सपा का चुनाव घोषण पत्र उन्होंने सार्वजनिक सभा में फाड़ कर फेंका था। आज कांग्रेस किस मुकाम पर है क्या वह अकेले चुनाव में उतरने का साहस दिखा रही है। क्या कारण है कि पीके को पूरा संगठन अघोषित रूप से सौंपने के बावजूद कांग्रेस को कुछ हासिल नहीं हुआ। क्या कारण है कि पीके की सलाह पर पूरी तरह अमल करने के बावजूद राहुल गांधी अपनी छवि सुधार नहीं सके, क्या कारण है कि कई महीनों की कवायद के बवाजूद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का ग्राफ नहीं बढ़ा।

गनीमत है कि राहुग गांधी विधानसभा चुनवों से पहले विदेशी अज्ञातवास से वापस आ गए। बताया जा रहा है कि उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की औपचारिक घोषणा कभी भी हो सकती है। ये बात अलग है कि इस ताजपोशी की अटकलें पिछले कई वर्षों से लग रही हैं। वैसे परिवार आधारित पार्टियों में शीर्ष पद का निर्धारण प्रायः औपचारिकता होती है। जब−जब राहुल को अध्यक्ष बनाने की उल्टी गिनती शुरू होती है वह न जाने किस देश में बिना बताये चले जाते हैं। यह एक संयोग मात्र हो सकता है, लेकिन इसे लेकर चर्चा अवश्य शुरू हो जाती है। इस रहस्य को सुलझाने का प्रयास होता है, लेकिन हर बार नाकामी हासिल होती है। इस बार राहुल को गोपनीय विदेश यात्रा अधिक चौंकाने वाली थी क्योंकि नोटबंदी पर भरपूर हंगामा और बयानबाजी के बाद देश में प्रदर्शन की योजना राहुल गांधी ने ही बनायी थी। यह माना गया है कि वह खुद इसमें भागेदारी करेंगे। नोटबंदी उनकी विपक्षी राजनिति का सबसे प्रिय विषय बन गया था लेकिन वह प्रदर्शन के ऐलान के फौरन बाद बिना बताये यात्रा पर चले गये।

इसमें दूसरी चौंकाने वाली बात विधानसभा चुनावों के समय से संबंधित थी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया महत्वपूर्ण दौर में है। अधिसूचना जारी चुकी थी, प्रत्याशी चयन का कार्य अंतिम चरण में था, पंजाब में घोषण पत्र जारी होना था, लेकिन राहुल गांधी विदेश में थे। घोषणा पत्र पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जारी किया। अमरिंदर की बात तो सही थी। लेकिन इसमें मनमोहन सिंह को शामिल करने से कांग्रेसी भी हैरत में थे। पिछला लोकसभा चुनाव मनमोहन व राहुल के नेतृत्व में हुआ था। कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई थी। इसके अलावा सिख होने के बावजूद मनमोहन का पंजाब की राजनीति में कभी कोई महत्व नहीं रहा। ऐसे में राहुल का इस अवसर से अलग रहना ज्यादा अप्रत्याशित नहीं था, लेकिन मनमोहन की मौजूदगी बहुत अप्रत्याशित थी।

बताया जा रहा है कि अमरिन्दर सिंह अपनी मर्जी से पंजाब चुनाव का संचालन कर रहे हैं। उन्होंने पहले ही यह कह दिया था कि राहुल गांधी पंजाब में ज्यादा हस्तक्षेप न करें। वह जितने सक्रिय होंगे पार्टी को उतना ही नुकसान होगा। मनमोहन सिंह को प्रतीक रूप में शामिल किया गया। कांग्रेस के भीतर ही लोग राहुल की न्यूनतम सक्रियता चाहते हैं। पंजाब के पहले यही नजारा बिहार में देखने को मिला था। तब कांग्रेस के अलावा राजद और जदयू के नेताओं ने पहले ही बता दिया था कि राहुल की ज्यादा सक्रियता उन्हें मंजूर नहीं होगी। लालू यादव व नीतीश कुमार ने भी राहुल के साथ मंच साझा करने में दिलचस्पी नहीं दिखायी थी। राहुल को समझना होगा कि घिसे पिटे और बेतुके मुद्दे उठाने से न तो उनकी छवि में सुधार हो रहा है, ना पार्टी का ग्राफ बढ़ रहा है। इसके विपरीत कांग्रेस के क्षत्रप भी उन्हें नजरअंदाज कर रहे हैं। नोटबंदी पर हंगामे के बावजूद राहुल को विपक्ष ने नेता नहीं माना न ही उन्हें जन समर्थन मिला। राहुल की बातों से खुद उनके खिलाफ प्रश्न उठते हैं।

जनवेदना सम्मेलन में उन्होंने कहा कि अच्छे दिन तब आयेंगे, जब अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनेगी। प्रश्न उठा कि क्या इसके लिए दस वर्ष कम पड़ गये थे। राहुल आज घोटाले का आरोप लगाते हैं पर इनका कोई आधार या प्रमाण नहीं देते हैं। प्रश्न उठता है कि संप्रग घोटालों पर वह मौन क्यों हैं। राहुल कांग्रेस की वापसी का मंसूबा दिखाते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में गठबंधन के लिए तत्पर क्यों हैं। ऐसे अनके प्रश्नों पर राहुल को किसी अज्ञातवास में आत्मचिंतन करना चाहिए।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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