लोकसभा चुनाव में भगवा खेमे से एक और ब्यूरोक्रेट ताल ठोंकने की तैयारी में
हाल फिलहाल में 2022 के विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही कानपुर के कमिश्नर असीम अरुण ने वीआरएस के लिए आवदेन किया तो प्रवर्तन निदेशालय के जॉइंट डायरेक्टर राजेश्वर सिंह का भी वीआरएस आवदेन स्वीकार कर लिया गया। अब दोनों बीजेपी से विधायक हैं और एक तो मंत्री भी हैं।
उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में आजकल एक आम चर्चा सुनने को मिल रही है। चर्चा इस बात कि है कि जल्द ही यूपी कैडर का एक नामित और चर्चित नौकरशाह जोकि कुछ ही माह में सेवानिवृत्त होने वाला है, वह जल्द ही राजनीति के मैदान में अपनी दूसरी ‘पारी’ शुरू कर सकता है। यह वही अधिकारी है जिसने सपा प्रमुख मुलायम सिंह के एक इशारे पर अखिलेश सरकार के समय लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे मात्र ढाई वर्षों में तैयार करा दिया था, जिस पर जगुआर जैसे फाइटर प्लेन तक की लैंडिंग कराई गई थी। यही नौकरशाह कोरोना काल में खादी विभाग के प्रमुख सचिव रहते आनन-फानन में पचास लाख खादी के मास्क तैयार कराने की महत्वाकांक्षी योजना को हकीकत में बदलकर योगी का विश्वास पात्र बन गया था, जबकि इस नौकरशाह को सपा का करीबी समझ कर मुख्यमंत्री योगी ने पहले हाशिये पर डाल रखा था और खादी विभाग जैसा कम महत्वपूर्ण महकमा सौंपा था। कोरोना के खिलाफ जंग में खादी का सुरक्षा कवच (मास्क) तैयार करने वाले इस ब्योरोक्रेट के चलते ही यूपी इसी काल खण्ड में रैपिड टेस्टिंग किट से कोविड-19 की जांच करने वाला पहला प्रदेश बन पाया था।
योगी ही नहीं सपा-बसपा और पूर्व की भाजपा सरकार के दौरान भी इस नौकरशाह का खूब सिक्का चला। कल्याण सिंह सरकार में इस नौकरशाह को फैजाबाद जैसे महत्वपूर्ण जिले की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस दौरान यह अधिकारी अयोध्या में राम जन्मभूमि से जुड़े साधू-संतों के काफी करीब आ गया। यह अधिकारी लखनऊ जैसे महत्वपूर्ण जिले में डीएम रहा। 2007 में बसपा सरकार बनने पर केन्द्र से पांच आईएएस यूपी लौटे जिनमें से एक नाम इस अधिकारी का भी शामिल था। यह अधिकारी अपने नाम से नहीं, काम के चलते सुर्खियां बटोरता है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, यह अपना काम पूरी ईमानदारी से करता मिल जाता है। इस अधिकारी के बारे में यहां तक कहा जाता है, ''जहां रहेगा वहीं रोशनी लुटाएगा, किसी चराग का अपना मकां नहीं होता।’’ यह अधिकारी और कोई नहीं पंजाब में जन्मे और 1988 बैच के यूपी कैडर के अधिकारी नवनीत सहगल हैं जो कुछ माह बाद 31 जुलाई 2023 को रिटायर होने वाले हैं। सहगल को सेवा विस्तार मिलने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है, ऐसा इसलिए है क्योंकि सहगल भी अब ‘नौकरशाही' छोड़कर ‘राजशाही‘ का स्वाद चखना चाहते हैं।
आईएएस नवनीत सहगल के बारे में कहा जा रहा है कि ब्यूरोक्रेसी से सेवानिवृत होने के बाद वह भी अन्य कुछ नौकरशाहों की तरह भगवा रंग में रंग सकते हैं। इस बात या चर्चा में इसलिए दम भी लगता है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि बीजेपी आलाकमान पूर्व नौकरशाहों को केन्द्र और राज्यों की राजनीति में लाकर अपनी केन्द्र और राज्यों की सरकारें चलाने के लिए इनके अनुभव का खूब फायदा उठा रहा है।
इस कड़ी में कई नौकरशाहों के नाम गिनाए जा सकते हैं। वैसे नौकरशाहों का राजनीति से प्रेम नया नहीं है। इसकी शुरुआत करीब 70 वर्ष पूर्व हो गई थी, जब 1952 में फैजाबाद के जिलाधिकारी केकेके नायर (आईसीएस जो अब आईएएस कहलाते हैं) रिटायर्ड होने के बाद जनसंघ में शामिल हो गए थे। हाल फिलहाल में 2022 के विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही कानपुर के कमिश्नर असीम अरुण ने वीआरएस के लिए आवदेन किया तो प्रवर्तन निदेशालय के जॉइंट डायरेक्टर राजेश्वर सिंह का भी वीआरएस आवदेन स्वीकार कर लिया गया। अब दोनों बीजेपी से विधायक और मंत्री भी हैं।
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पुरानी बात की जाए तो 1967 में जनसंघ के टिकट पर बहराइच से लोकसभा सांसद बने श्रीश चंद्र दीक्षित जो कि आईपीएस रहे, वह पहले बीजेपी में आए और बाद में विश्व हिन्दू परिषद यानी विहिप में चले गए। विहिप के ही नेता अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल जो कि आईपीएस थे उनको बीजेपी ने राज्यसभा भेजा। इसके अलावा समाजवादी पार्टी के बेहद करीबी अधिकारी नीरा यादव के आईपीएस पति महेंद्र सिंह यादव भी बीजेपी में शामिल हुए।
इस लिस्ट में कई सारे पूर्व नौकरशाहों के नाम जुड़े रहे हैं, जिसमें अरविंद शर्मा यानी ए0के0शर्मा भी कम खास नहीं हैं, जो कि गुजरात कैडर के आईएएस रहे हैं। वह योगी सरकार के दूसरे कार्यकाल में नगर विकास जैसे महत्पूर्ण विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहेते नौकरशाह अरविंद कुमार शर्मा उत्तर प्रदेश में करीब चार वर्ष पूर्व विधान परिषद चुनाव के समय अचानक प्रकट हुए थे। चट से वीआरएस लिया, पट से भाजपा में शामिल हुए और दूसरे ही दिन विधान परिषद के टिकट से निर्विरोध उत्तर प्रदेश विधान परिषद के माननीय सदस्य बन गए। अरविंद कुमार शर्मा मऊ के काजाखुर्द गांव के रहने वाले हैं। गुजरात कैडर, मुख्यमंत्री कार्यालय तथा केंद्र में प्रधानमंत्री कार्यालय में रहकर शर्मा मऊ के लिए कुछ नहीं कर सके। अब मंत्री बनने के बाद नई पारी में उनकी परीक्षा होनी है। क्योंकि शीर्ष नेतृत्व उन्हें यूं ही प्रदेश में स्वैच्छिक सेवानिवृति दिलाकर नहीं लाया है। भविष्य की राजनीति में वह हिंदुत्व के एजेंडा के साथ विकास का एजेंडा भी सेट करना चाह रहा है। ज्ञातव्य हो कि अरविंद्र कुमार शर्मा के भाजपा में शामिल होने पर कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू ने सवाल उठाया था कि ‘शर्मा को बताना चाहिए कि वे अब तक सरकारी सेवा कर रहे थे या एक पार्टी की सेवा में लगे थे।’
नौकरशाहों का उत्तर प्रदेश के लिए राजनीतिक प्रेम वर्षों पहले दिखाई पड़ने लगा था। इसकी शुरुआत सात दशक पूर्व केकेके शर्मा से हुई थी। आजादी के बाद प्रदेश में संभवतः पहला वाकया रहा होगा जब अयोध्या में दिसंबर 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखी जाने के बाद फैजाबाद के जिलाधिकारी केकेके नायर आईसीएस निलंबन और बहाली के बाद सेवामुक्ति लेकर 1952 में जनसंघ में शामिल हो गए थे। उनकी पत्नी हिंदू महासभा के टिकट पर पड़ोसी जिले से सांसद चुनकर लोकसभा पहुंच गई थीं। नायर पहले प्रयास में खुद तो हार गए थे लेकिन उनकी पत्नी और उनका ड्राइवर चुनाव जीत गया था। नायर 1967 में जनसंघ के टिकट पर बहराइच से लोकसभा पहुंच गए थे। इसी प्रकार अयोध्या में 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के आरोप में तत्कालीन एसएसपी आईपीएस देवेंद्र बहादुर राय (डीबी राय) निलंबन और बर्खास्तगी के बाद अगले ही चुनाव में फैजाबाद के पड़ोसी जिले सुल्तानपुर से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा के सांसद चुन लिए गए थे।
इसी तरह से श्रीचन्द्र दीक्षित आईपीएस अधिकारी और फैजाबाद के एसपी एवं प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (1984) रहे। दीक्षित अस्सी के दशक में भाजपा में शामिल हुए। विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष हुए और राममंदिर आंदोलन के दौरान कारसेवकों को 1990 में विवादित परिसर में पहुंचाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। भाजपा से वे वाराणसी से सांसद निर्वाचित हुए। यह सीट पहली बार भाजपा ने जीती थी। पूर्व आईपीएस और विहिप नेता अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल को भी भाजपा में शामिल होने के बाद राज्यसभा भेजा गया था। मुलायम सिंह यादव की सरकार के दौरान उत्तर प्रदेश की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव के पति महेंद्र सिंह यादव आईपीएस से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर भाजपा में शामिल हुए और विधायक बने थे। मायावती सरकार के दौरान उनके अतिप्रिय अधिकारियों में पीएल पूनिया आईएएस तथा बृजलाल आईपीएस थे। पूनिया प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री रहे, तो बृजलाल पुलिस महानिदेशक के पद से रिटायर हुए। आश्चर्य यह हुआ कि पूनिया कांग्रेस की शरण में चले गए और एक दलित चेहरा बनकर बाराबंकी से लोकसभा टिकट पाकर सांसद बन गए और बृजलाल भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए और अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के अध्यक्ष बना दिए गए। बाद में पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया। आईएएस अधिकारी रहे देवी दयाल रिटायर होने के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए और लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन वे लोकसभा नहीं पहुंच सके। कांग्रेस में शामिल होने वालों की भी अच्छी खासी तादाद रही है। आईएएस रहे राजबहादुर, ओमप्रकाश ने रिटायर होकर कांग्रेस की सदस्यता ली। एपीसी रहे आईएएस अधिकारी अनीस अंसारी ने भी रिटायर होने के बाद कांग्रेस की सदस्यता ली।
वहीं आईपीएस अधिकारी रहे अहमद हसन ने रिटायर होकर समाजवादी पार्टी का रास्ता पकड़ा तो उसी के हो गए। वह मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की सरकार में मंत्री रहे। विधान परिषद सदस्य और परिषद में नेता विपक्ष की भूमिका भी निभाई। लोकसभा चुनाव 2019 के ऐन वक्त पर इस्तीफा देकर पीसीएस अधिकारी रहे श्याम सिंह यादव बहुजन समाज पार्टी की सदस्यता लेते ही लोकसभा का टिकट पाकर लोकसभा के सांसद हो गए। तकनीकी सेवा के पूर्व अधिकारी पीडब्ल्यूडी के मुख्य अभियंता के रूप में सेवानिवृत्त हुए त्रिभुवन राम (टीराम) बसपा में शामिल होकर विधायक बन गए। बाद में भारतीय जनता पार्टी की शरण में चले गए। एसके वर्मा, आरपी शुक्ला और बाबा हरदेव सहित नौकरशाह सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय लोक दल में शामिल हो गए। कुछ ने अपनी अलग पार्टी बना ली। पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्रपाल ने अपनी आदर्श समाज पार्टी बनाई और पूर्व पीसीएस तपेंद्र प्रसाद ने सम्यक पार्टी बनाई। दोनों ही ज्यादा राजनीति नहीं कर सके।
बहरहाल, अधिकारियों के भी इस राजनीति प्रेम के अपने तर्क हैं उनका कहना है कि यदि विभिन्न क्षेत्रों के लोग राजनीति में जा सकते हैं तो नौकरशाह क्यों नहीं? सेवा में रहते हुए उनका वास्ता तो जनता से ही पड़ता है और वे सेवा करने के लिए ही नौकरियों में आते हैं। यदि रिटायर होने के बाद राजनीति में आकर पुनः वे सेवा करना चाहते हैं तो क्या बुरा है। नौकरशाहों की कौन कहे, अब तो न्यायाधीश भी रिटायर होकर लोकसभा, राज्यसभा पहुंचना चाहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगाई बिना किसी पार्टी में शामिल हुए रिटायर होते ही राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा नामित कर दिए गए। जबकि न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा लंबा समय व्यतीत करने के बाद कांग्रेस में शामिल होकर राज्यसभा के सांसद बने। नौकरशाहों के राजनीति में आने की एक वजह और भी है, वह अपने आप को राजनेताओं की अपेक्षा सर्वोच्च समझता है। सेवा की लंबी पारी का उनका अनुभव अवश्य होता है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि अब तक जो नौकरशाह सरकारी सेवा के बाद राजनीति में आए, वह भी राजनीति में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं कर सके।
लब्बोलुआब यह है कि नौकरशाहों के बीजेपी में आने की सबसे बड़ी वजह अगर देखी जाए तो इनके शीर्ष नेतृत्व का नौकरशाही पर भरोसा है। जब भी बीजेपी या इसके गठबंधन की सरकार आती है तो एक आरोप इनकी सरकार पर जरूर लगता है कि सरकार को नौकरशाह चला रहे हैं। अभी भी केंद्र की सरकार हो या उत्तर प्रदेश सरकार, दोनों पर यह आरोप लगातार रहा है कि कुछ नौकरशाह पार्टी के नेताओं को भी अनदेखा करते हैं और सरकार में हस्तक्षेप ज्यादा है। ऐसे में नौकरशाह और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में जो रिश्ते बनते हैं वो बाद में राजनीतिक रिश्तों में तब्दील हो जाते हैं। हालांकि, नौकरशाहों की पैराशूट लैंडिंग से संगठन और कार्यकर्ताओं पर असर पड़ता है, क्योंकि जिसने 60 साल तक अधिकारी बनकर काम किया हो वो जनता और कार्यकर्ताओं के बीच अन्य नेताओं की तरह सहजता से काम नहीं कर पाता जिसको लेकर संगठन को काफी मेहनत करनी पड़ती है।
-अजय कुमार
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