धनुषकोटि कभी समृद्ध नगर था पर आज भुतहा शहर से जाने जाता है

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बताते हैं कि अंग्रेजों के समय धनुषकोटि बड़ा नगर था और रामेश्वरम एक छोटा सा गांव था। उस समय यहां से श्रीलंका के लिए नौकायें चलती थी और किसी प्रकार पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती थी। थलाईमन्नार-श्रीलंका जाने के लिए नाव का किराया 18 रुपये था। इसी के माध्यम से व्यापारिक लेनदेन भी होता था।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे देश मे एक ऐसा शहर भी है जिसे भुतहा शहर कहा जाता है। यह शहर जिसे भुतहा कहा जाता है वहां कभी समृद्ध धार्मिक नगर था और जीवित संस्कृति सांस लेती थी। आइए आप भी जानिए हमारे साथ-साथ इसके भुतहा होने की कहानी को।

रामेश्वरम से रामसेतु की और जाते समय ऑटोरिक्शा वाले ने कुछ खंडहरों की ओर इशारा कर बताया कि साहब ये जो खंडहर नज़र आ रहे है यहां कभी एक बड़ा अच्छा आबाद नगर था। इसे अब भुतहा शहर कहा जाता है। उसके ऐसा कहने से जिज्ञासा उत्त्पन्न हुई और हमने ऑटो रुकवा लिया। 

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समुद्र के किनारे रेत पर नज़र आरहे खंडहर भवनों की ओर चल पड़े। चर्च, डिस्पेंसरी, स्कूल और कुछ अन्य भवनों के अवशेष हमारे सामने खंडहर के रूप में थे। हम जैसे ही कुछ औऱ सैलानी भी इन्हें निहार रहे थे। कैसे होंगे ये भवन इस बारे में सभी अपने-अपने अनुमान लगा रहे थे। इनके भव्य होने की कल्पना कर रहे थे और इसकी यादों को फ़ोटो और सेल्फी लेकर अपने पास संजो रहे थे। इस से पहले समुद्री उत्तपाद शंख, सीप, मोती, मनके और इनसे बने सजावटी समान बेचने की कुछ कच्ची दुकाने सजी थी।

वहीं एक स्थानीय मछुआरे ने दूर इशारा कर बताया वहां एक रेलवे स्टेशन था। हमने जाकर देखा तो अब वहां मात्र स्टेशन भवन के खंडहर के अवशेष रहगये थे। इस क्षेत्र में आज कुछ मछुआरे रहते हैं जो समुंद्र से मछली पकड़ कर उनसे अपनी आजीविका चलते है। कुछ मछुआरे रामेश्वरम से सुबह आते हैं और शाम होते होते वापस लौट जाते हैं। जहां नज़र जाती थी समुंद्र ही समुंद्र था।

बताते हैं कि अंग्रेजों के समय धनुषकोटि बड़ा नगर था और रामेश्वरम एक छोटा सा गांव था। उस समय यहां से श्रीलंका के लिए नौकायें चलती थी और किसी प्रकार पासपोर्ट की जरूरत नहीं होती थी। थलाईमन्नार-श्रीलंका जाने के लिए नाव का किराया 18 रुपये था। इसी के माध्यम से व्यापारिक लेनदेन भी होता था। वर्ष 1897 में जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका से लंका मार्ग से भारत आये तो वे धनुषकोटि भूमि पर उतरे थे। वर्ष 1964 में यह एक विख्यात पर्यटक स्थल और तीर्थस्थल था। श्रद्धालुओं के लिए यहां होटल, धर्मशालाएं, कपडो की दुकाने थीं। उस समय यहां चेन्नई से धनुषकोटि के मध्य 'मद्रास ऐग्मोर' से 'बोट मेल' नामक रेल सेवा संचालित होती थी। आगे श्रीलंका को फेरी बोट से जमे के लिए यह रेल सेवा उपयुक्त थी। धनुषकोटि में जलयान निर्माण केंद्र, रेलवे स्टेशन, छोटा रेलवे चिकित्सालय, पोस्ट आफिस एवं मछलीपालन जैसे सरकारी कार्यालय भी थे।

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धनुषकोटि जैसे समृद्ध शहर के लिए 22 दिसंबर 1964 की रात दुर्भाग्य लेकर आई जब एक भयानक समुद्री तूफान में यह नगर पूर्णतः बर्बाद हो गया। पम्बन-धनुषकोटि पैसेंजर रेल जिस में 5 कर्मचारी और 110 यात्री सवार थे प्रचंड तूफान की तरंगों की भेंट चढ़ गई। धनुषकोटि से कुछ पहने पूरी रेलगाड़ी बह गई और पूरा रेल मार्ग नष्ट हो गया। करीब 270 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से आये चक्रवात से पूरा शहर खत्म हो गया। यह चक्रवात आगे रामेश्वरम तक गया उस समय भी 8 फुट ऊँची तरंगे थी। इस परिक्षेत्र के करीब एक सहस्र से अधिक व्यक्ति काल के गाल में समा गए। कुछ लोग मारने वालों की संख्या पांच सहस्र बताते हैं। धनुषकोटि में सब कुछ खत्म होकर कुछ खंडहर रह गये। केवल एक व्यक्ति जिसका नाम कालियामन था बच गया जिसने समुद्र में तैर कर अपने प्राण बचाये। सरकार ने पास के गांव का नाम उसके नाम पर "निचल कालियामन" रख कर उसका गौरव बढ़ाया। धनुषकोटि बस स्टैंड के खंडहर के समीप मारने वालों की याद में एक स्मारक बनाया गया है। उस पर लिखा है- "उच्च वेग से बहने वाली हवा के साथ उच्च गति के चक्रवात ने धनुषकोटि को 22 दिसंबर 1964 की आधी रात से 25 दिसंबर 1964 की शाम तक तहस नहस कर दिया, जिससे भारी नुकसान हुआ और धनुषकोटि का पूरा शहर बर्बाद हो गया!"

इस आपदा के बाद मद्रास सरकार ने इसे भुतहा शहर घोषित कर रहने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। वर्षो तक यहां कोई आता जाता नहीं था। अब कुछ लोग आने जाने लगे हैं। यहां आने वालों को सुबह जाकर संध्या को रात होने से पहले लौटने की सलाह दी जाती है। सरकार भी इसे फिर से पर्यटन से जोड़ने का प्रयास कर रही है। भुतहा शहर देखने की रुचि ने इसकी और पर्यटकों को आकर्षित किया है। यहाँ पहुंचने वालों की संख्या बढ़ने लगी हैं।

भारतीय नौसेना ने भी अग्रगामी पर्यवेक्षण चौकी की स्‍थापना समुद्र की रक्षा के लिए की है। धनुषकोटी में भारतीय महासागर के गहरे और उथले पानी को बंगाल की खाड़ी के छिछले और शांत पानी से मिलते हुए देख सकता है। चूंकि समुद यहां छिछला है, तो आप बंगाल की खाड़ी में जा सकते हैं और रंगीन मूंगों, मछलियों, समुद्री शैवाल, स्टार मछलियों और समुद्र ककड़ी आदि को देख सकते हैं।

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वर्तमान में नियमित रूप से बस की सुविधा रामेश्वरम से कोढ़ान्‍डा राम कोविल (मंदिर) होते हुए उपलब्ध है। जो तीर्थयात्री जो धनुषकोटी में पूर्जा अर्चना करना चाहते हैं, निजी वैनों पर निर्भर होना पड़ता है जो यात्रियों की संख्‍या के आधार पर 50 से 100 रूपयों तक का शुल्‍क लेते हैं। संपूर्ण देश से रामेश्‍वरम जाने वाले तीर्थयात्रियों की मांग को देखते हुए वर्ष 2003 में, दक्षिण रेलवे ने रेल मंत्रालय को रामेश्‍वरम से धनुषकोडी के लिए 16 किमी के रेलवे लाइन को बिछाने की प्रोजेक्‍ट रिपोर्ट भेजा थी।

रामायण कालीन धनुषकोटि का धार्मिक एवं पौराणिक महत्व है। आसपास अनेक स्थल भगवान राम से सम्बंधित प्रसंगों के दर्शनीय हैं। राम ने विभीषण को यहां शरण दी थी तथा लंका विजय के बाद विभीषण के अनुरोध पर राम ने धनुष तोड़ने का अनुरोध मान कर धनुष का एक सिरा तोड़ दिया। तब ही से इसका नाम धनुषकोटि पड़ गया। यह स्थान रामेश्वरम से करीब 19 किमी दूर है। श्रीलंका समुद्र द्वारा यहां से 18 किमी दूर बताई जाती है। पौराणिक संदर्भ, इतिहास, प्रकृति में रुचि रखने वालों को यह स्थान अवश्य देखना चाहिए।

- डॉ. प्रभात कुमार सिंघल

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