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देव ऋषि नारद को रहती है दुनिया के हर कोने की खबर
- ललित गर्ग
- मई 11, 2017 12:43
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नारद मुनि का व्यक्तित्व रहस्यमय है, उन्हें समझना आसान नहीं है। यूं तो वे हमेशा खुश और आनन्दित दिखते हैं पर वे काफी संजीदा और विद्वान भी हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं की मानें तो उन्होंने भगवान विष्णु के कई काम पूरे किये हैं।
देव ऋषि नारद या नारद मुनि ब्रह्माजी के पुत्र और भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त हैं। वह इधर की बात उधर करके, दो लोगों के बीच आग लगाने के लिये काफी प्रसिद्ध हैं। माना जाता है कि उन्हें सब खबर रहती है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहाँ क्या हो रहा है। मुंह पर नारायण नारायण और हाथ में वीणा लिये, नमक−मिर्च लगा के बातें फैलाना, एक बात को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने, लड़ाई करवाने, उसे रुकवाने, सृष्टि की किसी बड़ी घटना की आहट को पहचान कर उसे एक लोक से दूसरे लोक में पहुंचाने में उनकी महारत है। उन्हें दुनिया का आदि पत्रकार माना गया है। जगह−जगह में जो चल रहा है, उसकी सुध लेते, इस लोक से उस लोक तक भ्रमणशील रहते, वीणा की तान छेड़ते, नारायण−नारायण करते हुए नारद खबरों को संप्रेषित करते, प्रसारित करते। संगीत के मर्मज्ञ एवं पंडित नारद को हम इहलोक, देवलोक और असुरलोक, तीनों लोकों में एक समान विचरने वाले सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक एवं आदर्श पत्रकार के रूप में याद कर सकते हैं। नारद को केवल मात्र एक पत्रकार के रूप में समझना या प्रस्तुत करना संभवतः उनके प्रति एकपक्षीय दृष्टि है, क्योंकि उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। उन्होंने ब्रह्मा से ज्ञान प्राप्त किया। संगीत का आविष्कार किया। समाज में भक्ति के मार्ग का प्रतिपादन किया और संवाद के माध्यम से लोकहित का कार्य किया। वे तमस से ज्योति की, असत्य से सत्य की एवं अंधकार से प्रकार की एक सतत यात्रा हैं।
नारद मुनि का व्यक्तित्व रहस्यमय है, उन्हें समझना आसान नहीं है। यूं तो वे हमेशा खुश और आनन्दित दिखते हैं पर वे काफी संजीदा और विद्वान भी हैं। हिन्दू पौराणिक कथाओं की मानें तो उन्होंने भगवान विष्णु के कई काम पूरे किये हैं। नारदजी को विष्णु का संदेशवाहक माना गया है। वे हमेशा तीनों लोकों में घूमते रहते हैं और देव, दानव और मानव को महत्वपूर्ण जानकारी देते रहते हैं। नारदजी हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। वे धर्म के प्रचार तथा लोक−कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गों में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय−समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है। श्रीमद् भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है देवर्षियों में मैं नारद हूं।
वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है− देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य−तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं। जनसाधारण देवर्षि के रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णतः घटित होते हैं। सम्पूर्ण भारत में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण और अनेक देवी−देवताओं की एक समान जानकारी हर भारतवंशी को होने के पीछे नारदजी की पत्रकारिता एवं सुसंवादिता ही मुख्य है। नारद की छवि किसी जाति, वर्ग, समुदाय, सम्प्रदाय से नहीं जुड़ी थी। वे मनुष्य थे या देवता, यह कहना कठिन है। कहीं−कहीं वे गंधर्व के रूप में भी प्रकट होते हैं। परन्तु उस काल में वे देवताओं, मानवों और दानवों सभी के मित्र−हितैषी थे और उनको कुछ सिद्धियां एवं अधिकार प्राप्त थे, जिससे वे पलक झपकते ही सृष्टि के किसी भी कोने में पहुंच जाते और ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं अन्य सभी के दरवाजे उनके लिये हरदम खुले रहते थे। बिना किसी रोक−टोक के वे कहीं भी आ जा सकते थे।
एक बार त्रिदेवी− लक्ष्मी, सरस्वती और पार्वती के बीच में अहम की लड़ाई हो गयी कि कौन-सी माता सबसे श्रेष्ठ है। नारदजी ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया और हर देवी के पास जाकर दूसरी दो देवियों की बातें बतायीं। आखिर में नारदजी के कहने पर अपनी शक्ति का प्रणाम देने के लिये तीनों देवियों ने एक चमत्कार करने की ठानी। ज्ञान की देवी सरस्वती ने एक गूंगे−बहरे आदमी को रातों−रात विद्वान बना दिया। धन की देवी लक्ष्मी ने एक गरीब औरत को रानी बना दिया और बल की देवी पर्वती ने एक बहुत डरपोक आदमी को बल देकर सेनापति बना दिया। थोड़ी देर में ही उस राज्य में कोहराम मच गया क्योंकि आम जनता ने उस सेनापति के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि उस रानी ने उस विद्वान को मृत्यु−दंड दे दिया था। उस विद्वान ने रानी की प्रशंसा करने के लिये मना कर दिया था। तब तीनों देवियों को एहसास हुआ यह सारा खेल नारदजी का ही किया धरा था। इस तरह नारदजी आपस में लड़ाने में माहिर थे। आधुनिक समय में आम तौर पर यदि कोई दो लोगों के बीच लड़ाई कराये तो उसे हम 'नारद मुनि' की उपाधि देते हैं। विष्णु पुराण के एक आनंदमय श्लोक के अनुसार जो दो लोगों के बीच कलह करवाये वह नारद है। लेकिन नारदजी की नीयत हमेशा साफ होती है। वे परोपकारी एवं जनउद्धारक हैं। वे जो कुछ भी करते हैं प्रभु की इच्छा अनुसार ही करते हैं, कभी बदले की भावना या कभी किसी को नुकसान पहुंचाने की भावना से नहीं करते। जन−जन का कल्याण ही उनकी इच्छा होती है। सकारात्मकता, सज्जनता एवं परोपकार उनका मुख्य ध्येय होता है।
माना जाता है ऋषि नारद के कारण ही असुर हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद जैसा संत एवं भक्त पुत्र समाज को प्राप्त हुआ। यह उदाहरण अकेला नहीं है। नारद ने ऐसे अनेक कार्य किये जिनसे भविष्य का घटनाक्रम ही बदल गया। कंस के मन में उन्होंने यह शक पैदा किया कि देवकी की कोई भी आठवीं संतान हो सकती है जो उसका वध करेगी। नारद ने ऐसा इसलिये किया कि कंस के अत्याचार और पाप इतने बढ़ जायें जिससे उसका वध करना समाज हित के लिए एक अनिवार्य कार्य हो जाए।
व्यापक दृष्टि से देखें तो नारद केवल मात्र सूचनाओं का आदान−प्रदान नहीं करते थे। वे तो वाणी का प्रयोग लोकहित में करते थे। महत्वपूर्ण यह भी है कि नारद स्थायी रूप से कहीं नहीं रहते थे। कहा जाता है कि प्रजापति ने उन्हें यह श्राप दिया था कि वे निरंतर भ्रमण करते रहें और एक स्थान पर रहना उनके लिए अवांछनीय था। इसलिये पत्रकारिता के लिये भ्रमणशीलता जरूरी मानी गयी है। एक पत्रकार का कहा हुआ समाज एवं देश हित में माना जाता है, पत्रकारिता के प्रति यह विश्वसनीयता नारदजी के कारण ही है। ऐसा इसलिये भी है कि नारद ने जैसा कहा, उसे उस समय हर किसी ने सौ प्रतिशत सत्य और तथ्यात्मक माना। इतना ही नहीं, नारद ने जो सुझाव दिया, उसे किसी दानव, मानव या देवता ने न माना हो, ऐसा भी प्रकरण नहीं आता है। यहां तक कि पार्वती अपने पति शिव की बात को न मानकर नारद के कहने पर अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाती हैं और एक बड़े घटनाक्रम का सूत्रपात होता है जिसमें शिव के तांडव का उद्घाटन है। ऐसा संभव नहीं लगता कि नारद केवल एक ही व्यक्ति थे क्योंकि सतयुग, द्वापर और त्रेता युग− सभी में नारद की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है। वह विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोगों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता उनसे प्रेरणा ले और मानवता के कल्याण के लिये प्रतिबद्ध हो, ऐसा होने से नारदजी की स्मृति एवं उनकी उपस्थिति का अहसास हम युग−युगों तक जीवंत रख पाएंगे।
- ललित गर्ग
Gyan Ganga: श्रीराम से बालि को नहीं मारने का अनुरोध क्यों करने लगे थे सुग्रीव?
- सुखी भारती
- फरवरी 23, 2021 16:25
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सज्जनों श्रीराम जी के समग्र जीवन में देखेंगे तो पाएँगे कि क्रोध तो उन्हें किसी पर आता ही नहीं। वे तो अपने परम शत्रु पर भी दया लुटाने को तत्पर हो उठते हैं। लेकिन सुग्रीव जब कहते हैं कि प्रभु मुझे बालि के प्रति अब रोष व शत्रुता नहीं है तो आप उन्हें मत मारें।
श्री रामजी ने सुग्रीव की बात सुनी तो हँस पड़े क्योंकि श्रीराम जी जानते थे कि सुग्रीव का वैराग्य क्षणिक व परिस्थितिजन्य है। परिस्थिति बदलेगी तो सुग्रीव की बैरागी अवस्था भी परिवर्तित हो जाएगी। लेकिन सुग्रीव को प्रभु श्रीराम जी सदा यूं ही बिन पेंदे के लोटे की तरह थोड़ी रखना चाहते थे। जिसमें जिधर चाहो लोटा उधर ही लुढ़क जाता है। उसे स्थिर होना है तो उसका पेंदा अर्थात् आधार होना अति आवश्यक है। वास्तव में विश्वास ही वह आधार है जिस पर एक साधक सदा टिका रह सकता है। इसलिए भगवान ने भी थोड़ी सख्ती दिखा दी कहा कि सुग्रीव देखो तुम्हें अब बदलना होगा। मैं भले ही अब तक वैसा ही करता रहा जैसा तुम कहते व चाहते रहे। लेकिन अब मैं अपने दिए वचन से नहीं मुडूँगा। मेरा कहा अटल होता है मैंने जब यह प्रण ले ही लिया कि मैं बालि को मारूंगा ही मारूंगा और तुम्हें राज्य सिंघासन पर भी अवश्य बिठाऊँगा तो समझ लो कि दोनों प्रसंग घटित होकर ही रहेंगे। इसलिए अब तुम्हें अपने मन की अवस्था मेरे वचनों के अनुसार ही निर्मित करनी पड़ेगी। श्रीराम जी ने सुग्रीव को मानों बड़े तरीके से कह दिया−
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जो कछु कहेहु सत्य सब सोई।
सखा बचन मम मृषा न होई।।
श्रीराम कहते हैं कि हे सुग्रीव निःसंदेह तुम्हारी बातें सत्य की चाशनी में डूबी हैं। लेकिन क्या करूं मैंने जब वचन दे ही दिया है तो इसका अर्थ कि बालि का मरना तो निश्चित ही है।
श्रीराम जी तो दया के सागर हैं, करूणा निधान हैं, उन्हें किसी के प्रति कोई शत्रुता कहाँ। अगर शत्रुता का भाव उन्हें कण मात्र भी छुआ होता तो श्रीराम मंथरा को तो अवश्य ही दंडित करते। दंड देने की बात तो छोड़िए पूरी रामायण खंड में एक भी ऐसा लघु से लघु प्रसंग भी प्रतीत नहीं होता जिसमें प्रभु श्रीराम मंथरा के लिए कोई कटु शब्द बोलते हों। क्योंकि देखा जाए तो मंथरा ही तो प्रभु श्रीराम जी के बनवास के लिए पृष्ठ भूमि तैयार करती है। कैकेई को भड़काती है और श्रीराम तो अपनी माता कैकेई को भी कभी अपशब्द नहीं कहते। अपने पिता राजा दशरथ पर तो फिर भी असंतोष का कारण बनता था क्योंकि माना कि माता कैकेई तो सौतेली थी उन्हें कोई व्यक्तिगत पीड़ा कैसे होती। परंतु राजा दशरथ तो उनके सौतेले पिता न थे। सायंकाल तो वे घोषणा करते हैं कि सुबह श्रीराम को अयोध्या को सिंघासन पर बिराजमान करेंगे। और सुबह हुई तो निर्णय पलट देते हैं। मात्र निर्णय ही पलटते तो कोई बात न थी, लेकिन यहाँ तो वे सीधा भाग्य ही पलट देते हैं। श्रीराम जी को 14 वर्ष का बनवास दे डाला। पिता वाला कोई स्नेह, प्रेम व दुलार की कोई परंपरा की कोई लाज ही न रखी। कितना अन्याय, अत्याचार व शोषित व्यवहार होने पर भी श्रीराम जी के उनके प्रति व्यवहार, सत्कार व प्यार में कोई त्रुटि नहीं आती अपितु श्रीराम जी कहते हैं कि अरे! किसने कहा कि मुझे मेरे पिता ने अयोध्या का राजपाठ न देकर अन्याय किया। अयोध्या का राजपाठ तो एक सीमित क्षेत्र तक ही था। लेकिन पिता दशरथ ने मुझे इससे कहीं अधिक विशाल व विराट राज्य की वागडोर दी है। और वो राज्य है 'वनों का राज्य।' वे कहते हैं कि−
पिता दीन्ह मोहि कानन राजू।
जहं सब भांति मोर बड़ काजू।।
पिता दशरथ ने वनों का राज्य देकर मुझ पर कृपा ही की है। क्योंकि वहीं पर वास्तव में मेरे समस्त कार्य सिद्ध होने हैं।
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सज्जनों श्रीराम जी के समग्र जीवन में देखेंगे तो पाएँगे कि क्रोध तो उन्हें किसी पर आता ही नहीं। वे तो अपने परम शत्रु पर भी दया लुटाने को तत्पर हो उठते हैं। लेकिन सुग्रीव जब कहते हैं कि प्रभु मुझे बालि के प्रति अब रोष व शत्रुता नहीं है तो आप उन्हें मत मारें। और अब तो मुझे राजपाठ व धन परिवार की भी चाहना नहीं। क्योंकि सर्वस्व त्याग कर मैं तो आपकी सेवा करने चला हूँ। तो फिर यह झगड़ा झंझट क्यों। तो यह सुन श्रीराम जी को अवश्य ही बालि को मारने की योजना स्थगित कर देनी चाहिए थी। क्योंकि पीड़ित ही अगर आरोपी को दण्डित नहीं करना चाहता तो श्रीराम जी क्यों बलपूर्वक बालि को दंड देना चाहते हैं? इसके पीछे बहुत से सूक्ष्म, अनिवार्य व न्याय संगत कारण हैं। प्रथम कारण बालि का अहंकार था। वानरों की इतिहास गाथा वास्तव में कुछ और ही संदेश समेटे हुए है। वानर जाति का उदय यूं ही अस्तित्व में नहीं आया था। हुआ यूं था कि जब पृथ्वी रावण के पापों व अत्याचारों से त्रास्त थी, तो देवगणों ने ब्रह्मा जी को जाकर प्रार्थना की आप प्रभु को मृत्यु लोक पर अवतरित होने के लिए मनाइए। प्रभु दुष्टों के संहार व धर्म की स्थापना हेतु इस धरा धाम पर अवतार धारण करने हेतु सहमति प्रदान कर देते हैं। देव गणों को लगा कि अब अपना काम तो हो गया। प्रभु अवतार लेंगे और राक्षसों का वध करेंगे। अब हमारा क्या काम! हम जाकर विषय भोग भोगते हैं। देवगण जैसे ही वापिस पलटने लगे तो ब्रह्मा जी ने सबको रोक लिया कि प्रभु से केवल स्वार्थ का रिश्ता रखना कदापि यथोचित नहीं है। आप सबको भी प्रभु की सेवा में धरा पर देह धारण करनी होगी। प्रभु नारायण से नर बनने का साहस रखते हैं तो आप लोगों को कम से कम देवता से वानर रूप धरण करना ही चाहिए−
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बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ।
सभी देवता वानर रूप धारण कर प्रभु के वन आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाकी सभी वानर तो ठीक निर्वाह कर रहे थे लेकिन बालि को अपने बल का इतना अहंकार हो गया कि वह स्वयं को ईश्वर से भी अधिक बलशाली मान चुका था। वानर देह तो इसलिए धारण की थी कि प्रभु की सेवा करनी है एवं रावण वध में उनका सहयोग करना है। लेकिन कृत्य देखिए कि वह रावण से ही मित्रता किए बैठा है। क्योंकि एक प्रसंग में जब बालि रावण को पराजित कर अपने कांख में दबाकर समस्त विश्व का भ्रमण करता है तो रावण क्षमा याचना करता हुआ बालि की अनेकों स्तुतियां कर उसे रिझाकर अपने पक्ष में कर लेता है। बालि भी आत्म प्रशंसा के वशीभूत होकर उसे अभय दान दे देता है। यद्यपि होना तो यह चाहिए था कि ऐसे दुष्ट को दंडित करे लेकिन बालि को तो धुन थी कि उसके बल व सामर्थ्य का पूरी दुनिया लोहा माने। प्रभु का यश फैले या न फैले इससे उसे कोई सरोकार नहीं था। परंतु अपना यश व कीर्ति सर्वत्र फैलनी चाहिए इसकी उसे बहुत चिंता थी। बल व सामर्थ्य की ही बात की जाए तो हनुमान जी के सामने उसकी क्या बिसात थी। लेकिन श्री हनुमान जी ने भी कभी अपने बल का प्रदर्शन व अहंकार नहीं किया। अपितु इसी प्रतीक्षा में लगे रहे कि हमें प्रभु की सेवा में अपना सर्वस्व लगाना है। बालि एक नहीं अपितु दो−दो गलतियां एक साथ करता है। रावण से तो मित्रता की लेकिन साथ में अपने ही भाई सुग्रीव के साथ शत्रुता पूर्ण व्यवहार करने लगा। प्रभु भला अपने सेवकों व भक्तों के प्रति किसी का शत्रु भाव कैसे स्वीकार कर सकते हैं।
लिहाज़ा प्रभु ने अपना निर्णय यथावत रखा कि मैं बालि को जरूर मारूंगा। मारूंगा भी उसी बाण से जिससे मैंने ताड़ के वृक्षों को काटा था। मानों कह रहे हों कि बालि भी ताड़ के वृक्षों की तरह सीधा अकड़ा खड़ा है। किसी को छाया भी नहीं देता। तो क्यों न व्यर्थ के इस बोझ से पृथ्वी के भार को कम किया जाए। बालि को मारने का दूसरा कारण था वह कारण भी उसके बल के साथ ही जुड़ा था। क्या था वह कारण? हम अगले अंक में विस्तार पूर्वक जानेंगे...क्रमशः...जय श्रीराम
-सुखी भारती
Gyan Ganga: अर्जुन ने चंचल मन को स्थिर करने का उपाय पूछा तो भगवान ने क्या कहा ?
- आरएन तिवारी
- फरवरी 19, 2021 13:33
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अर्जुन कहते हैं- हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल, हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें, तो यह लग सकता है।
गीता प्रेमियो ! हवाएँ अगर मौसम का रुख बदल सकती हैं तो दुआएँ भी मुसीबत के पल बदल सकती हैं। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं जो किस्मत बदल देते हैं।
अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण किस्मत से ही प्राप्त हुए थे, जिन्होंने सबको छोड़कर केवल अर्जुन को चुना और उनको प्रत्यक्ष रूप से गीता सुनाई।
आइए ! गीता प्रसंग में चलते हैं-
पिछले अंक में हमने पढ़ा- भगवान त्रिभुवन के स्वामी हैं तथा हमारे परम हितैषी और सखा हैं। श्रद्धा और विश्वास के साथ अगर हम दृढ़तापूर्वक हरि चिंतन करें, तो भगवान का साक्षात्कार निश्चित है। अब आगे भगवान मनुष्य को अपना उद्धार करने की प्रेरणा देते हैं।
श्री भगवान उवाच
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा ही जन्म-मृत्यु के बन्धन से अपना उद्धार करने का प्रयत्न करे और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही हमारा मित्र है, और मन ही हमारा शत्रु भी है। आइए ! इस पर थोड़ा विचार करें— ‘मैं’ शरीर नहीं हूँ, क्योंकि शरीर बदलता रहता है और ‘मैं’ वही रहता हूँ। यह शरीर मेरा नहीं है, क्योंकि शरीर पर मेरा वश नहीं चलता। मैं इस शरीर को जैसा रखना चाहूँ वह वैसा नहीं रह सकता, जितने दिन तक रखना चाहूँ उतने दिन तक नहीं रख सकता, जितना सुंदर और सबल बनाना चाहूँ नहीं बना सकता। कौन चाहता है, कि मेरा शरीर बूढ़ा हो किन्तु बूढ़ा होना पड़ता है। इस शरीर पर मेरा कोई अधिकार नहीं। यदि यह मेरे लिए होता तो हमेशा मेरे पास रहता। इस प्रकार शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिए नहीं। यदि मनुष्य इस सच्चाई पर अमल करे, तो उसका अपने आप उद्धार हो जाएगा।
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जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥
जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान एक समान होते है। अर्थात् जिसका शरीर में मैं-पन और मेरा-पन नहीं है वह अनुकूलता और प्रतिकूलता में भी निर्विकार रहता है, क्योंकि वह मानता है कि सुख-दुःख और मान-अपमान तो आते जाते हैं, पर परमात्मतत्व ज्यों का त्यों रहता है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! जो मनुष्य सभी प्राणियों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणियों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है। श्रीमदभागवत कथा का एक बहुत ही रोचक प्रसंग स्मरण में आता है—
ब्रह्माजी जब गाय-बछड़ों और ग्वाल-बालों को चुराकर ले गए, तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही गाय-बछड़े और ग्वाल-बाल बन गए। केवल ग्वाल-बाल ही नहीं बल्कि उनके बेंत, सींग, बांसुरी और वस्त्र-आभूषण भी बन गए। यह लीला एक वर्ष तक चलती रही, पर किसी को इसका पता नहीं चला। जब बलराम जी ने ध्यान लगाकर देखा तो उनको गाय-बछड़ों और ग्वाल-बालों के रूप में भगवान श्रीकृष्ण ही दिखाई दिए। ऐसे ही भगवान का सिद्ध भक्त सब जगह भगवान को ही देखता है। उसके लिए यह जगत सर्वं विष्णुमयं जगत है। कर्मयोगी परमात्मा को नजदीक देखता है, ज्ञानयोगी परमात्मा को अपने में देखता है और भक्तियोगी परमात्मा को सर्वत्र ही देखता है।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन ! योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणियों के हृदय में मुझको देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव मुझमें ही स्थित रहता है। अर्थात् भगवान और भक्त दिखने में तो दो हैं, पर वास्तव में एक ही हैं। भक्त में भगवान हैं और भगवान में भक्त है। भगवान में अत्यंत प्रीति होने के कारण भक्तियोग का साधक भगवान को प्राप्त हो जाता है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥
हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान सभी प्राणियों को देखता है, सभी प्राणियों के सुख और दुःख को अपना ही सुख और दुख समझता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना चाहिये। वह भक्त सभी प्राणियों की आत्मा में भगवान के ही दर्शन करता है, वह सभी शरीरों को अपना शरीर ही मानता है, इसलिए वह दूसरे के दुख से दुखी और दूसरे के सुख से सुखी होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस के उत्तर कांड में संत के लक्षण बताते हुए कहते हैं- संत सांसरिक विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं। उन्हें दूसरे का दुख देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। विषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
अब अर्जुन भगवान से इस चंचल मन को स्थिर करने का उपाय पूछते हैं-
अर्जुन उवाच
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
अर्जुन कहते हैं- हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल, हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। आप ही कृपा करके इस मन को खींचकर अपने में लगा लें, तो यह लग सकता है।
श्रीभगवानुवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
श्री भगवान ने कहा- हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है।
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अर्जुन की माता कुंती बहुत बुद्धिमती तथा सांसरिक भोगों से विरक्त रहने वाली थी। श्रीमद भागवत महापुराण में कुंती ने भगवान श्रीकृष्ण से विपत्ति का वरदान मांगा था।
विपद: सन्तु न: शश्वत तत्र तत्र जगत्गुरो।
भवतो दर्शनं यत् स्यात् अपुन: भवदर्शनम्।।
ऐसा वरदान मांगने वाला इतिहास में बहुत कम मिलता है। यहाँ भगवान अर्जुन को कुंती माता की याद दिलाते हैं कि जैसे तुम्हारी माता कुंती बड़ी विरक्त है, ऐसे ही तुम भी संसार से विरक्त होकर अपने मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगाओ।
अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥
अर्जुन ने पुन: पूछा- हे कृष्ण! प्रारम्भ में श्रद्धा-पूर्वक योग में स्थिर रहने वाला किन्तु बाद में चंचल मन होने के कारण योग से विचलित होने वाला असफ़ल-योगी परम-सिद्धि को न प्राप्त करके किस गति को प्राप्त करता है?
श्रीभगवानुवाच
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥
भगवान कहते हैं— हे अर्जुन! योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग के भोगों को भोगता है। पुण्य क्षीण होने और भोगों से अरुचि हो जाने पर वह फिर लौटकर मृत्युलोक में सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। भगवान उसकी अधूरी साधना पूरी करने का मौका देने के लिए शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म देते हैं।
श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु...
जय श्री कृष्ण...
-आरएन तिवारी
Gyan Ganga: आखिर ऐसा क्या हो गया था जो सुग्रीव प्रभु श्रीराम को ही उपदेश देने लगे थे?
- सुखी भारती
- फरवरी 18, 2021 18:08
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श्रीराम जी की हँसी क्यों प्रस्फुटित हुई अब इस पर विषय पर विवेचना तो आवश्यक प्रतीत होती है। श्रीराम जी इसलिए हँस देते हैं कि सुग्रीव कितना नादान-सा है। कुछ ही समय पहले जिसे अपने जीवन के क्रिया−कलापों की समझ नहीं आ रही थी, कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं?
श्री हनुमान जी के पुनीत भावों के चलते सुग्रीव आज श्रीराम जी के पावन चरणों में है। सुग्रीव के भाव कड़वी तुमड़ी से मीठे शहद तक की यात्रा करते हैं। कहो तो उसे श्रीराम बाली के द्वारा उसे मारने वाले प्रतीत हो रहे थे। कहाँ आज प्रभु बालि को ही मारने वाले पात्रा में सुशोभित हो उठे। विगत अंक के भावों की लड़ी को जोड़ें तो हम पाते हैं कि श्रीराम का बल व सामर्थ्य जानने के पश्चात् सुग्रीव के भीतर वैराग्य की धूनी जग उठी। श्रद्धा सातवें आसमां पर जा बिराजी। और सुग्रीव श्रीराम को माया व जगत की नश्वरता पर बड़े−बड़े व्याख्यान सुनाने लगा। और इन्हीं प्रवचनों के प्रवाह में सुग्रीव एक विलक्षण व अपच-सी पैदा करने वाली बात कह देता है−
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अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति।
सब तजि भजनु करौं दिन राती।।
सुग्रीव जो अब तक इसे ही कृपा समझ रहा था कि संसार का मिलना बहुत बड़ी कृपा है। अचानक कह उठा कि प्रभु अब मुझ पर आप कुछ इस प्रकार से कृपा करें कि मैं सारी मोह माया त्याग कर केवल आज आपका भजन करूँ। निःसंदेह सुग्रीव यहाँ बात तो बड़ी ज्ञान व वैराग्य की कर रहा है। और श्रीराम को यहाँ सुंदर आध्यात्मिक अवस्था दिखनी भी चाहिए थी। लेकिन श्रीराम जी की तो उल्टा हँसी ही निकल गई−
सुनि बिराग संजुत कपि बानी।
बोले बिहँसि रामु धनुपानी।।
श्रीराम जी की हँसी क्यों प्रस्फुटित हुई अब इस पर विषय पर विवेचना तो आवश्यक प्रतीत होती है। श्रीराम जी इसलिए हँस देते हैं कि सुग्रीव कितना नादान-सा है। कुछ ही समय पहले जिसे अपने जीवन के क्रिया−कलापों की समझ नहीं आ रही थी, कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं? वही सुग्रीव अब मुझे यह तक समझाने की समझ रख रहा है, कि कृपा बेशक मुझे करनी है। लेकिन कब और कैसे करनी है? इसका दिशा निर्देश भी अब मुझे सुग्रीव ही देगा− 'अब प्रभु कृपा करहु इहि भाँति' इसका यही तो अर्थ हुआ न कि तुम मुझे कृपा करने के तौर तरीके समझाने चले हो। यह देख मुझे हँसी नहीं आएगी तो और क्या होगा? क्योंकि किसी पर कृपा कब और क्यों करनी चाहिए, यह विषय और चिंतन जीव का थोड़ी होता है। यह तो बस प्रभु का मन है, वे चाहें तो किसी कौवे से गरूड़ को भी उपदेश दिलवा देते हैं। और प्रभु न चाहें तो गरूड़ भी एक शुद्र पतंगे की मामूली उड़ान से भी पराजित हो जाता है। गुरबाणी में भी गुरु साहिबान फरमान करते हैं−
किआ हँसु किआ बगुला जा कउ नदरि करेइ।।
जो तिसु भावै नानका कागहु हँसु करेइ।।
जीव को कब और क्या चाहिए यह उसको थोड़ी भान होता है। जीव जिसमें अपना कल्याण समझता है हो सकता है कि उसी में उसका अहित छुपा हो। संसार में कौन जीव दुखों की चाहना व प्राप्ति का प्रयास करता है। सांसारिक सभी अपने समस्त क्रियाकलाप मात्र सुख को केन्द्र बिंदु मानकर ही तो करते हैं। लेकिन फिर भी क्यों संसार में अधिकांश जीव दुःखी हैं। यद्यपि दुःख प्राप्ति का तो उन्होंने प्रयास ही नहीं किया−
यतन बहुत सुख के किए। दुःख का किया न कोय।
तुलसी यह असचरज है अधिक−अधिक दुःख होय।।
अर्जुन तो चाह रहा है कि कुरूक्षेत्र का युद्ध न हो। मेरे सभी सगे−संबंधी जीवित रहें, कहीं कोई रक्तपात न हो। लेकिन सुंदर से दिखने वाले अर्जुन के इन सुंदर भावों को क्या श्री कृष्ण जी ने माना? नहीं न! अपितु यही कहा कि अर्जुन तू अपनी मन−बुद्धि का त्याग कर दे। क्योंकि तू वास्तव में कुछ जानता ही नहीं। तुम संसार में स्वयं से जुड़ी जीवन की एक सीमित-सी काल परिधि के बारे में ही सोच रहे हो। यद्यपि तुम अनभिज्ञ हो कि आज से पहले तुम्हारे और मेरे एक नहीं अपितु असंख्य जन्म हो चुके हैं। तुम्हें उन सबका विस्मरण हो चुका है और मुझे सब कुछ याद है−
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बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।। (4/5)
तुम्हें लग रहा है कि अपनों के वध का तुम्हें पाप लगेगा। पाप पुण्य के इन्द्रजाल में तुम पूर्णतः उलझ चुके हो। तुम्हारा चिंतन तो केवल इसी जन्म के अनुभव पर आधरित है। यद्यपि मैं तो सब के असंख्य जन्मों के लेखे−जोखे को जानता हूँ। और उसी आधार पर मुझे निर्णय करना होता है कि किसे मृत्यु देनी है और किसे जीवनदान। इसलिए मुझे व्यर्थ में यह निर्देश मत करो कि मुझे कैसे और क्या करना है? अपितु तू वह कर जो मैं तुझे आदेश दे रहा हूँ। तू मेरे हाथों का यंत्र बन, सुख, दुःख, लाभ−हानि, जय−पराजय इन सबमें सम रहता हुआ युद्ध को तत्पर हो। निश्चित है कि पाप तुम्हें छूएगा भी नहीं−
सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। (2/38)
श्री कृष्ण अर्जुन को अनेकों तर्कों व सिद्धांतों से समझा रहे हैं। और अर्जुन है कि प्रभु पर अपने ही सिद्धांत थोपने पर अड़ा हुआ है। जब तक अर्जुन यूं ही अड़ा रहा हम देखते हैं कि अर्जुन का मोह भंग नहीं हुआ। उल्टा मन में विचलता व असमंजस की स्थिति बढ़ती गई। लेकिन जैसे ही अर्जुन ने अपने आधारहीन विचार श्री कृष्ण को देने बंद किए। और उनके आदेश की पालना व अनुसरण धरण किया तो श्री कृष्ण उसे तत्काल परम योग विद्या प्रदान करते हैं। और अर्जुन का मोह भंग होता है। उसी क्षण अर्जुन अपना गांडीव उठा युद्ध को तत्पर हो महान यश व कीर्ति को प्राप्त होता है।
ठीक इसी प्रकार श्रीराम जी भी सुग्रीव को यश व कीर्ति प्रदान करना चाहते हैं। बालि के वध व सुग्रीव को किष्किंधा नरेश बनाने का वचन भी दे चुके हैं। और सुग्रीव हैं कि अर्जुन की तरह अपने ही मनगढ़ंत सिद्धांत पर अड़ गए। और प्रभु को ही समझाने लगे हुए हैं कि प्रभु आप तो बस यही कृपा करो कि मैं सब छोड़ कर मात्र आपकी भक्ति करूँ।
लेकिन क्या प्रभु सुग्रीव के कहने अनुसार चलते हैं अथवा नहीं जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम
-सुखी भारती

