कश्मीरियों से ''इंसानियत के दायरे'' में बात करे सरकार
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सरकार कह रही है कि कश्मीरियों से बात करेंगे। मूल प्रश्न यह है कि आप कश्मीरियों से बात क्या करेंगे? ‘संविधान का दायरा’ यदि कारगर होता तो अटलजी को ‘इंसानियत के दायरे’ की बात क्यों करनी पड़ती?
कश्मीर में पिछले डेढ़ माह से कोहराम मचा हुआ है। दर्जनों लोग मरे हैं, हजारों लोग घायल हुए हैं और सैकड़ों नौजवान अंधे हो गए हैं। कुछ फौजियों और पुलिसवालों ने भी अपनी जान से हाथ धोया है लेकिन सरकार की नींद अब खुली है। जो सर्वदलीय बैठक प्रधानमंत्री ने बुलाई थी, उसका नतीजा क्या निकला? शून्य! इसका मतलब क्या हुआ? क्या यह नहीं कि हमारे नेताओं के पास कश्मीर के कोहराम का कोई हल नहीं है।
लेकिन अब जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीरी नेता प्रधानमंत्री से मिले हैं। उनसे मिलने के बाद नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वे संविधान की मर्यादा में रहकर कश्मीर-समस्या का स्थायी हल निकालेंगे। उन्होंने कश्मीर के लोगों को भी ‘हमारे लोग’ कहा है। वहां होने वाली मौतों पर भी दुख प्रकट किया है। यह तो बहुत अच्छा किया। यदि वे आज से एक-सवा माह पहले खुद ही कश्मीर चले जाते तो कश्मीरियों के घावों पर मरहम जरूर लगता। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कुछ ठोस काम किया है। चार दिन पहले मैंने सुझाव दिया था कि नेताओं के अलावा कुछ मुल्ला-मौलवियों, साधु-संतों, पादरियों और ज्ञानियों को घाटी में भेजा जाए। गुप्त-वार्ताओं के लिए कुछ बुद्धिजीवियों को भी प्रेरित किया जाए। ये वे लोग हैं, जिनसे कश्मीरी लोग खुलकर बात करेंगे। अपने दिल की बात कहेंगे और उन्हें जो बात ये लोग कहेंगे, उस पर कश्मीरी लोग जरूर ध्यान देंगे। इस सुझाव पर गृह मंत्रालय ने काम शुरू कर दिया है।
लेकिन मूल प्रश्न यह है कि आप कश्मीरियों से बात क्या करेंगे? ‘संविधान का दायरा’ यदि कारगर होता तो अटलजी को ‘इंसानियत के दायरे’ की बात क्यों करनी पड़ती? मोदी ने ज्यों ही ‘संविधान के दायरे’ की बात कही, कश्मीरी नेताओं ने उसे कूड़ेदान के हवाले कर दिया। संविधान अपनी जगह है। उसे आप संभालकर रखें लेकिन उसे हर बात में घसीटने की क्या जरूरत है? क्या आप अपने बच्चों से बात करते वक्त कानून या संविधान की दुहाई देते हैं? सारा दक्षिण एशिया हमारा परिवार है। भारत माता की संतान है। उसके लोगों से बात करने में हम किस-किस संविधान को कब-कब ढोते रहेंगे? यह परिवार हमारे संविधानों के पहले भी था और उनके बाद भी रहेगा। भारत सरकार के कुछ मंत्रिगण अपनी जुबान पर थोड़ा काबू रखें, यह भी जरूरी है। कश्मीरी नौजवानों के गुस्से को पाक-निर्मित (मेड इन पाकिस्तान) कहना भी उचित नहीं है। पाकिस्तान के नेताओं की मजबूरी है कि वे उत्तेजक बयान दें लेकिन हम उनकी नकल क्यों करें?
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