रोटी, कपड़ा और मकान...बेचारे गरीब मजदूरों के पास आज भी इसका अभाव

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यहाँ सवाल उन समृद्ध राज्य सरकारों से है जो अप्रवासी मजदूरों को पलायन करते देखती रहीं। शायद उन्हें इस बात का भान ही नहीं रहा होगा कि जब हालात सामान्य होंगे तब बिना इन मजदूरों के उस प्रदेश के कारखाने इत्यादि कैसे चलेंगे ?

कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई में देशभर में चल रहा लॉकडाउन पूर्ण रूप से सफल नहीं होता दिख रहा है तो इसके लिए कहीं ना कहीं सरकारें भी जिम्मेदार हैं क्योंकि ऐसा बड़ा निर्णय लेने से पहले पर्याप्त तैयारियां नहीं की गयी थीं। जिस तरह प्रवासी मजदूर महानगरों से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर निकल पड़े हैं वह दर्शा रहा है कि इन गरीबों की तब तक कोई नहीं सुनता जब तक कि यह एकदम बेहाल नहीं हो जायें। जरा महानगरों की क्रूरता देखिये जिन बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों को इन मजदूरों ने बनाया, जरूरत पड़ने पर वहां इन्हें किसी भी कोने में सिर छिपाने की जगह नहीं मिलती। जिन महानगरों में गरीब मजदूर रिक्शा चला कर, ई-रिक्शा चला कर या सब्जी का ठेला लगाकर लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को आसान बनाते हैं वह महानगर के लोग जरूरत पड़ने पर इन गरीबों के कभी काम नहीं आते। महानगरों के इन चमचमाती गाड़ियों वाले यह महानुभव जिनमें सत्ता में बैठे नेता और अधिकारी भी शामिल हैं, वह अगली गली या मोहल्ले तक जाने के लिए भी चारपहिया वाहनों का इस्तेमाल करते हैं लेकिन उन्हें उन बेचारे गरीब मजदूरों का यह कष्ट नहीं दिखा जिसमें अपना सारा सामान पीठ पर लादकर और छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लेकर पत्नी और परिवार सहित लोग अपने गृह राज्यों की ओर निकल पड़े हैं। जब तक सरकारें चेततीं तब तक यह बेचारे मजदूर कई किलोमीटर का सफर पैदल ही तय कर चुके थे। महानगरों में बहुत-से संभ्रांत लोग रहते हैं क्या यह उनका कर्तव्य नहीं था कि इन मजदूरों की यह बेहाली देख कर वह स्थानीय प्रशासन से मंजूरी लेकर निजी तौर पर बसों का खर्चा उठाने को आगे आते।

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मीडिया ने इन गरीबों, मजदूरों की व्यथा को मुद्दा बनाया तो केंद्र सरकार भी चेती और राज्य सरकारों ने भी इन लोगों की सुध ली। आनन-फानन में किसी राज्य सरकार ने प्रवासी मजदूरों के आश्रय और भोजन की व्यवस्था करने की बात कही तो किसी राज्य सरकार ने अपने प्रदेश से संबंधित गरीबों को उनके घर तक पहुँचाने का जिम्मा संभाल लिया। यहाँ सवाल उन समृद्ध राज्यों की सरकारों से है जो अप्रवासी मजदूरों को पलायन करते देखती रहीं। शायद उन्हें इस बात का भान ही नहीं रहा होगा कि जब हालात सामान्य होंगे तब बिना इन मजदूरों के उस प्रदेश के कारखाने इत्यादि कैसे चलेंगे ? कारखाने नहीं चलेंगे तो समृद्धि कैसे कायम रहेगी ? कैसे बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए मजदूर मिलेंगे ? कैसे छोटी-मोटी चीजें गली में बेचने आने वाले मिलेंगे ? इसके अलावा यह मजदूर तबका जो अपने गृह राज्यों को लौटा है वहां की अर्थव्यवस्था पर इससे और बुरा प्रभाव पड़ेगा। एक तो उस प्रदेश के रोजगार के अवसरों पर आबादी का और दबाव बढ़ेगा दूसरा संसाधनों के बंटवारे में भी इन राज्य सरकारों को दिक्कतें पेश आएंगी।

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मजदूरों के पलायन से एक बात साफ तौर पर उभर कर आई है कि सरकार ने इस स्थिति का अंदाजा पूर्व में नहीं लगाया होगा तभी इतनी अराजकता दिखी। राष्ट्रीय राजमार्गों पर मजदूरों की भीड़ दर्शा रही है कि केंद्र और राज्यों के बीच लॉकडाउन की घोषणा से पहले पर्याप्त समन्वय नहीं था। केंद्र के अलावा कुछ राज्य सरकारों ने हालांकि असंगठित क्षेत्र के कामगारों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए उन्हें अन्न और धनराशि की मदद देने की बात कही है लेकिन यह मदद तत्काल दी जानी चाहिए क्योंकि अभी जो मजदूर पलायन कर रहे हैं उनके पास खाने पीने के लिए कोई राशि नहीं बची है। सरकार को कोरोना राहत फंड के अलावा बेरोजगार हो गये ऐसे मजदूरों की सहायता के लिए भी कोई फंड बनाना चाहिए क्योंकि पता नहीं कब इन गरीबों के अच्छे दिन वापस आएंगे।

-नीरज कुमार दुबे

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