अनावश्यक सामाजिक दबाव का परिणाम है परीक्षा से लगने वाला डर

सीबीएसई और राज्यों के दसवीं और बारहवीं कक्षा के बोर्ड की परीक्षा शुरू हो रही है। छात्रों के साथ-साथ, उनके माता-पिता भी भारी सामाजकि दबाव में हैं क्योंकि हर पड़ोसी-रिश्तेदार यही कह रहा है कि 'अरे इसका तो बोर्ड है न ?' और यह सवाल यहीं ख़त्म नहीं होता, परीक्षा-परिणाम आने पर भी लोग पूछेंगे कि 'अरे इसके कितने नंबर आये?' हमारे समाज में बोर्ड की परीक्षा का इतना खौफ इसलिए है कि व्यस्क यहीं से बच्चों की औपचारिक तुलना की शुरुआत करते हैं। यह जानते हुए भी कि सभी बच्चे अलग-अलग प्रतिभा और दक्षता लिए होते हैं, लोग उनकी तुलना स्कूल-मोहल्ले-रिश्तेदारों के बच्चों से करते रहते हैं। अब जिसको पत्रकारिता में अपना कॅरियर बनाना है, उसकी इंजीनियरिंग की अभिलाषा रखने वाले छात्र से क्या तुलना ? अब जो क्रिकेट, राजनीति या संगीत में रूचि रखता है उसके ऊपर नंबर लाने का दबाव क्यों होना चाहिए ? जरा सोचिए कि हमारे बच्चे अगर वयस्कों की तुलना दूसरे लोगों से करने लगें कि 'आप वैसे क्यों नहीं बन गए' तो क्या होगा ?
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क्या नंबर की दौड़ इस बात की गारंटी है कि जो छात्र पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन करता है वह जीवन में भी उतना ही सफल होगा ? अभिभावकों को पीछे मुड़ कर अपने सहपाठियों को देखना चाहिए क्योंकि संभव है उनकी कक्षा का सबसे तेज छात्र, आज अध्यात्म या लेखन से जुड़ गया हो जहाँ नम्बरों की कोई अहमियत नहीं है। दुनिया में अधिकतर नवाचार और नाम करने वाले लोगों से कोई उनकी मार्कशीट नहीं मांगता ? किसने पूछा कि सचिन तेंदुलकर, धोनी, मयंक अग्रवाल या फिर रणवीर सिंह, दीपिका या संजीव कपूर के हाई स्कूल-इंटर में कितने अंक आये थे ?
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दरअसल, हमारी परीक्षा प्रणाली को बदलने की ज़रूरत है क्योंकि यह छात्रों को सिर्फ़ पास और फेल नहीं करती है बल्कि उनकी अच्छे और ख़राब छात्र के रूप में ब्रांडिंग करती है। फिर स्कूल के द्वारा की गयी ब्रांडिंग को, समाज तुलना करके उसको एक सामाजिक स्वीकृति में बदल देता है। इस कार्य में अधिकांश स्कूलों की भी भूमिका सकारत्मक नहीं रहती है। शुरूआती कक्षाओं से ही स्कूल अपने छात्रों के बारे में तेज, औसत और कमज़ोर बच्चे की धारणा बना लेता है। अपनी इन धारणाओं को शिक्षक लगातार दोहराते रहते हैं और जाने-अनजाने अपनी इस धारणा को सही शाबित करने का प्रयास भी करते हैं। लेकिन स्कूल से निकलने के बाद अधिकांश छात्र अपने जीवन में और कॅरियर में अपनी जगह बना लेते हैं। सीखना एक प्रक्रिया है और इसमें अनेक फैक्टर होते हैं तो फिर छात्र ही पास-फ़ेल क्यों होंगे ? स्कूल पास-फ़ेल क्यों नहीं होते ?
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सफलता या असफलता कोई एक स्थाई भाव नहीं होता है। क्या एक स्कूल में या एक कक्षा में सभी छात्र मेधावी हो सकते हैं ? आगे चल कर कोई छात्र क्या करेगा, विज्ञान पढ़ेगा, सामाजिक विज्ञान पढ़ेगा या फिर संगीत सीखेगा, फोटोग्राफी करेगा, कुछ पता नहीं है। जीवन की हर विधा में कोई अव्वल नहीं रह सकता है। अब सोचिये कि अगर परीक्षा प्रणाली में तैरना, साइकिल चलाना, खेल-गीत-संगीत-नाटक आदि सब सम्मिलित कर दिया जाए तो क्या तब भी परीक्षा परिणाम वही होंगे ? सचिन तेंदुलकर से लेकर अमिताभ बच्चन तक ने असफलता का स्वाद चखा है। समाज का सफल से सफल व्यक्ति असफलता की राह से गुजरा हुआ है। तो तुलना छोड़िये क्योंकि तुलना एक प्रकार की कुंठा और हिंसा को जन्म देती है। बच्चे को एक बेहतर इंसान बनाने के लिए प्रेरित करिये। कहिये कि बस परीक्षा दो, घर में नंबर या परिणाम कोई नहीं पूछेगा। बच्चे को उसकी रूचि, सीखने की गति और उपलब्धि के लिए बधाई दीजिये।
-डॉ. संजीव राय
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