जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों के बीच भारत के लिए अच्छी खबर

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अंकित सिंह । Jan 24 2020 5:21PM

भारत ने अप्रैल 2016 में औपचारिक रूप से पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। साल 2030 तक भारत ने अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके अलावा वर्ष 2030 तक अतिरिक्‍त वन और वृक्षारोपण का भी लक्ष्य है।

जलवायु परिवर्तन एक गंभीर चुनौती के रूप में हम सबके सामने खड़ा है, इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। वर्तमान में भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर के सभी क्षेत्रों को यह प्रभावित कर रहा है। लगातार समुद्री जल के स्तर में बढ़ोत्तरी और मौसम के बदलते पैटर्न ने लगभग दुनिया के हर कोने में रहने वाले लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। इस चुनौती से निपटने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं, बावजूद इसके ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में लगातार वृद्धि जारी है। पृथ्वी की सतह पर औसत तापमान में भी वृद्धि मानव जीवन के लिए एक खतरे की स्थिति पैदा कर सकती है। इतना ही नहीं, खाद्य उत्पादन पर भी जलवायु परिवर्तन का काफी असर देखा जा सकता है। 

आंकड़ों पर गौर करें तो 1980 से 2011 के बीच बाढ़ ने दुनिया में भयंकर तबाही मचाई है और इससे तकरीबन 5 मिलियन लोग प्रभावित हुए हैं। जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के कारण विश्व की तमाम प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा असर कृषि और पर्यटन के क्षेत्र पर पड़ा है। जलवायु परिवर्तन ने मौसम के चक्र को इतना प्रभावित किया है कि इसका दुष्परिणाम हम लगातार भुगत रहे हैं। एक ही समय में विश्व का एक हिस्सा बाढ़ की चपेट में होता है तो दूसरी तरफ भयंकर सूखे का सामना करना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सभी देशों ने कई उपाय किए हैं और साथ ही साथ पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर भी किया गया है। 

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क्या है पेरिस समझौता?  

फ्रांस की राजधानी पेरिस में 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर, 2015 तक 195 देशों ने जलवायु परिवर्तन को लेकर विचार विमर्श किया और इसके खतरे को कम करने की दृष्टि से एक प्रभावी कदम की ओर बढ़ने का संकल्प जताया। इस समझौते का सबसे बड़ा उद्देश्य वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को काफी हद तक कम करना है, ताकि वैश्विक तापमान की वृद्धि को Pre-Industrial level से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखा जा सके। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से निपटने और नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने में विकासशील और अल्पविकसित देशों की मदद करना भी इस समझौते का हिस्सा था। इस समझौते में यह भी माना गया कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए सिर्फ सरकारों के ही कदम काफी नहीं होंगे बल्कि इसमें व्यवसायों, निवेशकों, नागरिक समाज, यूनियनों और शैक्षणिक संस्थाओं की भी अहम भूमिका हो सकती है। इसके अलावा 186 देशों ने कार्बन कटौती के लक्ष्य निर्धारित किए थे। पेरिस समझौता इसलिए भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर के लगभग सभी देशों ने जलवायु संकट से निपटने के लिए एक मंच पर आकर एक साथ बढ़ने का संकल्प लिया था। अक्तूबर, 2016 तक 191 सदस्य देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। यानी अधिकांश देश ग्लोबल वार्मिंग पर काबू पाने के लिए जरूरी तौर-तरीके अपनाने पर राजी हो गए, जो एक बड़ी उपलब्धि माना गया। रूस, तुर्की और ईरान जैसे कुछ प्रमुख देश अभी तक समझौते में औपचारिक रूप से शामिल नहीं हुए हैं जबकि प्रक्रिया पूरी होने पर अमेरिका इस समझौते से अलग होने वाला पहला देश बन जाएगा।

भारत ने अप्रैल 2016 में औपचारिक रूप से पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किये थे। साल 2030 तक भारत ने अपनी उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33-35 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। इसके अलावा वर्ष 2030 तक अतिरिक्‍त वन और वृक्षारोपण का भी लक्ष्य है। 

जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक-2020 के आंकड़ों के अनुसार भारत पहली बार शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ है। भारत ने अपनी रैंक में सुधार करते हुए 9वां स्थान प्राप्त किया है। वहीं सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में अमेरिका पहली बार शामिल हुआ है। जी-20 देशों की बात करें तो केवल दो देश (ब्रिटेन -7वें और भारत- नौंवे) को 'उच्च' श्रेणी में रखा गया है। वहीं जी-20 के आठ अन्य देश सबसे खराब श्रेणी यानि कि बहुत निम्न में बने हुए हैं। ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब भी खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल हैं। यह रिपोर्ट वार्षिक रूप से जर्मनवॉच (Germanwatch), न्यू क्लाइमेट इंस्टीट्यूट( New Climate Institute) और क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (Climate Action Network) द्वारा संयुक्त तत्वाधान में प्रकाशित की जाती है। सूचकांक की सभी श्रेणियों में एक बार फिर पहले तीन स्थान खाली रहे क्योंकि कोई भी देश पैमाने पर खरा नहीं उतर पाया। 75.77 अंक प्राप्त कर स्वीडन ने चौथा स्थान हासिल किया है।

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यह रैंकिंग चार श्रेणियों - ऊर्जा उपयोग, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, नवीकरणीय ऊर्जा तथा जलवायु नीति में जारी की जाती है। यह रैंकिग 61 देशों के बीच की गई थी। इस सूचकांक में संयुक्त राज्य अमेरिका (61), सऊदी अरब (60), ताइवान (59) नंबर पर है यानि कि पंक्ति में सबसे नीचे वाले देश। भारत के प्रदर्शन के बारे में बात करे तो 66.02 अंक प्राप्त करके 9वें स्थान पर है। भारत के प्रदर्शन में दो पायदान का शुधार देखा गया है। वर्ष 2019 में वह 62.93 अंकों के साथ 11वें स्थान पर था। रैंकिंग की चार श्रेणियों के हिसाब से देखें तो 

ऊर्जा उपयोग- 9वां रैंक

ग्रीनहाउस गैस- 11वां रैंक

नवीकरणीय उर्जा- 26वां रैंक

जलवायु नीति- 15वां रैंक

हाल ही में संपन्न हुए रायसीना डायलॉग में इसी सूचकांक का जिक्र करते हुए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि हमने जलवायु परिवर्तन में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। उन्होंने कहा कि हम 2030 तक इसमें और सुधार करेंगे। इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई मौकों पर जलवायु परिवर्तन में भारत के कदम का उल्लेख कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन की हर चुनौती से निपटने में सक्षम है और पूरी प्रतिबद्धता के साथ पर्यावरण संबंधी हर चुनौतियों को खत्म करने की दिशा में बढ़ रहा है। जिस climate action tracker rating list का विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जिक्र किया उसमें स्वीडन चौथे नंबर पर, डेनमार्क पांचवें, मोरक्को छठवें, यूके सातवें, नवे पर भारत, 18वें नंबर पर फ्रांस, 21 पर ब्राजील, यूरोपीय यूनियन 22वें नंबर पर है। 23वें पर जर्मनी, 26 नंबर पर इटली और 30वें स्थान पर चीन है। वहीं खराब प्रदर्शन करने वाले देशों की सूची में मैक्सिको 32, साउथ अफ्रीका 36, इंडोनेशिया 39 और अर्जेंटीना 42 से नंबर पर है। सबसे खराब की सूची में 48 वें नंबर पर तुर्की, 51 नंबर पर जापान, 52 पर रूस, 55वें स्थान पर कनाडा, 56वें पर ऑस्ट्रेलिया, 58वें स्थान पर साउथ कोरिया, 60वें नंबर पर सऊदी अरब और 61 स्थान पर यानि कि सबसे नीचे अमेरिका है। इसी रायसीना डायलॉग में शामिल हुए विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने भी जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों से निपटने के लिए अपने-अपने विचार रखे और साथ ही साथ यह भी कहा कि इस दिशा में भारत द्वारा किए जा रहे कार्यों का वह समर्थन करेंगे। 

भारत को लेकर एक और अच्छी खबर आई है। दरअसल, दुनियाभर में लोग वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर मानव गतिविधियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और जलवायु विज्ञान में उनके विश्वास का स्तर घट रहा है, लेकिन भारतीयों का विश्वास जलवायु विज्ञान पर सबसे ज्यादा है। जलवायु विज्ञान में विश्वास और समाचार तथा समकालिक घटनाओं से अवगत रहने के मामलों में भारतीय और बांग्लादेशी सबसे ऊपर हैं, जबकि रूस और यूक्रेन इन दोनों ही मामलों में काफी पीछे हैं। यह सर्वेक्षण विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) ने अपनी 50वीं वार्षिक बैठक के दौरान प्रकाशित किया है। इसने साथ ही बेहतर जलवायु शिक्षा का आह्वान किया है। अब देखना यह होगा कि आखिर इस भयंकर जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों से किस तरीके से दुनिया निपटती है।

- अंकित सिंह

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