बुनियादी मुद्दों से जनता का ध्यान बहुत समय तक नहीं भटकाया जा सकता

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यदि दिल्ली की जनता मुफ्तखोर होती तब तो भाजपा को वहां प्रचण्ड बहुमत मिलना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका सीधा अर्थ तो यह हुआ कि या तो दिल्ली की जनता को भाजपा नेताओं की बातों पर भरोसा नहीं था या फिर उसे मुफ्तखोरी में रूचि नहीं है।

दिल्ली प्रदेश की जनता ने 62 सीटों के भारी भरकम बहुमत से एक बार पुनः आम आदमी पार्टी को सत्ता सौंप दी। आप को मिले प्रचण्ड बहुमत ने आखिर यह सिद्ध कर दिया कि जनता का ध्यान बुनियादी मुद्दों से बहुत लम्बे समय तक नहीं भटकाया जा सकता है और न ही साम्प्रदायिकता के नाम पर आमजन को ज्यादा दिनों तक मूर्ख बनाया जा सकता है। करारी हार मिलने के बाद भाजपा नेता जिस तरह से बयानबाजी करके दिल्ली की जनता को मुफ्तखोर की संज्ञा दे रहे हैं, उससे उनकी बौखलाहट ही अधिक सिद्ध हो रही है। दिल्ली के चुनाव परिणामों ने एक तरह से भाजपा को आईना ही दिखाया है।

दिल्ली विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान जहाँ एक ओर अरविन्द केजरीवाल सहित सभी आप नेता अपने विकास कार्यों के नाम पर जनता से समर्थन मांग रहे थे, वहीँ भाजपा नेता शाहीन बाग़ की ओर दिल्ली सहित समूचे देश का ध्यान खींचने का प्रयास कर रहे थे। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी से लेकर उत्तर प्रदेश सहित कई प्रदेशों के मुख्यमन्त्री और भाजपा के दो सौ से भी अधिक सांसद चुनाव प्रचार में लगे रहे। इसके बाद भी मिली करारी शिकस्त से भाजपा को कुछ तो सीख लेनी ही चाहिए। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान सभी भाजपा नेता अपने भाषणों में बार-बार अरविन्द केजरीवाल को उकसाने का प्रयास करते रहे कि केजरीवाल यह बताएं कि वह देश के साथ हैं या शाहीन बाग़ के आन्दोलनकारियों के साथ हैं। केजरीवाल भी बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत स्वयं को शाहीन बाग़ मामले से न केवल दूर किये रहे बल्कि जनता को यह समझाने में भी सफल रहे कि शाहीन बाग़ का आन्दोलन कानून व्यवस्था का मुद्दा है और दिल्ली की कानून व्यवस्था केन्द्र सरकार के आधीन है। दिल्ली की जनता ने इस तथ्य को न केवल भलीभांति समझा बल्कि इसे भाजपा की कलुषित राजनीति मानकर इसका करारा जवाब भी दिया।

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माँ के उदर से जन्म लेने वाला बच्चा सबसे पहले भूख और प्यास की तड़प को महसूस करता है। उसके बाद मौसम के वार की पहचान करते हुए वस्त्रों की अहमियत समझने लगता है। इसके बाद उसके जीवन की सबसे बड़ी अहमियत स्वयं की सुरक्षा होती है। शायद तभी वह थोड़े से भी खतरे का अहसास होते ही माँ की गोद में छिपने का प्रयास करता है। जाति और सम्प्रदाय की बातें तो उसे तब पता चलती हैं जब वह दुनियादारी समझने लगता है। इसका अर्थ तो यही है किसी मनुष्य के जीवन में उसकी बुनियादी आवश्यकतायें जाति और सम्प्रदाय से कहीं ऊपर हैं। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा के मूल में आमजन की सुरक्षा और बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति ही सर्वोपरि है। तब फिर सत्ता तो उसे ही सौंपी जानी चाहिए जो आमजन की सुरक्षा और उसकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्पित हो।

भारतीय संविधान में रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और सुरक्षा को न केवल आमजन की बुनियादी आवश्यकताओं के रूप में परिभाषित किया गया है बल्कि इनकी पूर्ति का पूर्ण उत्तरदायित्व सरकार को दिया गया है। संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत से विराजमान भारतीय जनता पार्टी को इस तथ्य पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि देश की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में आखिर वह क्यों अक्षम हो रही है। मंहगाई से जनता बेहाल है। भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। देश की अर्थ व्यवस्था लगातार ढलान की ओर अग्रसर है। नये रोजगार की बात कौन कहे जो हैं उन पर भी संकट के बादल मडरा रहे हैं। शिक्षा की हालत बद से बदतर होती जा रही है। सुरक्षा की स्थिति सभी को पता है। टोल प्लाजाओं पर फ़ास्टटैग के नाम पर अलग ढंग से सरकारी लूट शुरू हो चुकी है। अभी तक लोगों को यह उम्मीद थी कि धीरे-धीरे टोल टैक्स समाप्त हो जायेगा लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे टोल टैक्स राजमार्ग निर्माण का मूल्य नहीं बल्कि राजस्व जुटाने का एक नया स्रोत बना गया है। अब तो लोग विवश होकर यह पूछने लगे हैं कि वाहन पंजीकरण के समय जब रोड टैक्स जमा हो जाता है तब फिर अलग से टोल टैक्स क्यों ?

आम आदमी पार्टी की जीत के लिए उसके विरोधी सारा ठीकरा जनता के सर पर फोड़ रहे हैं। दिल्ली की जनता को मुफ्तखोर कहने वाले शायद यह भूल जाते हैं कि मुफ्त शौचालय, मुफ्त गैस कनेक्शन, किसानों को छह-छह हजार रुपये और कर्जमाफी आखिर किसकी देन है ? दिल्ली के भाजपा नेता मनोज तिवारी ने भी कहा था कि आम आदमी पार्टी जो भी मुफ्त में दे रही है हम उससे अधिक देंगे। अब यदि दिल्ली की जनता मुफ्तखोर होती तब तो भाजपा को वहां प्रचण्ड बहुमत मिलना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका सीधा अर्थ तो यह हुआ कि या तो दिल्ली की जनता को भाजपा नेताओं की बातों पर भरोसा नहीं था या फिर उसे मुफ्तखोरी में रूचि नहीं है। इस बात का उत्तर भाजपा को ही देना चाहिए।

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वास्तविकता तो यह है कि पाकिस्तान और साम्प्रदायिकता की खाई को चौड़ा करने वाली राजनीति के नाम पर देश ज्यादा दिनों तक गुमराह होने वाला नहीं है। 81.82 प्रतिशत साक्षरता वाले दिल्ली प्रदेश की 55 प्रतिशत आबादी युवा है, जो जाति और सम्प्रदाय की राजनीति पर विश्वास नहीं करती है। उसे तो अपने स्वप्न साकार करने हैं। इसके लिए उसे बिजली, पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ चाहिए, अच्छी शिक्षा चाहिए, अच्छे से अच्छा रोजगार चाहिए, जिसे उपलब्ध करवाने का विश्वास आप ने दिया। जबकि भाजपा जनता का विश्वास जीतने में सर्वथा असफल रही। केन्द्र सरकार के अधीन दिल्ली की कानून व्यवस्था की हालत से सभी अवगत हैं, जिसे दुरुस्त करने में भाजपा सरकार पूर्णतया असफल सिद्ध हुई है। अतः भजपा को अब आत्म-मन्थन करने की महती आवश्यकता है।

विचित्रता देखिये कि 72 वर्ष पूर्व अंग्रेजों ने जब देश छोड़ा था, तब वह हिन्दू-मुस्लिम के बीच वैमनस्यता का जो बीज बोकर गये थे, आज हम उस बीज की लहलहाती फसल को सिंचित करके विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होने का स्वप्न संजोये बैठे हैं। अंग्रेज चाहते थे कि भारत में महात्मा गाँधी अप्रासंगिक हो जाएँ। आज गाँधी जी को अप्रासंगिक बनाने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी है। अंग्रेज चाहते थे कि भारत की जनता जाति और सम्प्रदाय के संघर्ष में लड़ती-मरती और उलझी रहे ताकि हमसे अर्थात् अंग्रेजों से भारत के नागरिक 200 वर्षों की उनकी क्रूरता का हिसाब न मांग सकें। अब सोचना हम सबको है कि आजादी मिलने के बाद भी आखिर सफल कौन हुआ है ?

-डॉ. दीपकुमार शुक्ल

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