मिलावट का स्वर्ण काल (व्यंग्य)

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पीयूष पांडे । Oct 14 2019 6:45PM

शुद्ध माल अब किसी को पंसद नहीं। या समझिए कि शुद्धता सिर्फ विज्ञापनों की टैग लाइन तक सीमित है। हजम किसी को नहीं होती। शुद्ध हिन्दी बोलिए तो लोग पुरातन समझ लेते हैं। यू नो, या, यो-यो, आई मीन टू से जैसे चंद अंग्रेजी शब्दों की मिलावट कर दीजिए तो सब ठीक हो जाता है।

ये मिलावट का स्वर्णकाल है। जित देखिए तित मिलावट। लोग आधुनिकता और विकास का नारा लगाते हुए मिलावट के स्वर्णकाल को इंजॉय कर रहे हैं। मिलावट ही सत्य है। कभी सौभाग्य से शुद्ध माल के दर्शन हो जाएं तो लोग उलझन में पड़ जाते हैं कि फैशन के इस युग में 100 फीसदी टंच माल कहां से आ गया? हाल यह है कि दिल्ली के ज्यादातर लोगों को अगर पूरी तरह शुद्ध हवा मिल जाए तो उनकी तबीयत खराब हो सकती है। आदत ही नहीं है।

देश के करोड़ों लोग शुद्ध दूध पी लें तो उनका हाजमा बिगड़ सकता है। आदत ही नहीं है। शुद्ध देशी घी से बनी मिठाई को देखे ही लोगों को बरसों बरस हो गए हैं, खाना तो दूर की बात है। अब नकली मिठाई ही असली लगती है। माता के जगराता में अगर शुद्ध धार्मिक भजन बिना फिल्मी तड़के के बजने लगें तो संभव है कि भक्तगण उठकर चले जाएं। आदत ही नहीं है। वीर रस की कविता सुनाने वाला कवि भी कवि सम्मेलन में दो-चार वनलाइनर की मिलावट कर देता है ताकि वीर जवान बैठे रहें और लड़कियां भी उठकर न जाएं।

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शुद्ध माल अब किसी को पंसद नहीं। या समझिए कि शुद्धता सिर्फ विज्ञापनों की टैग लाइन तक सीमित है। हजम किसी को नहीं होती। शुद्ध हिन्दी बोलिए तो लोग पुरातन समझ लेते हैं। यू नो, या, यो-यो, आई मीन टू से जैसे चंद अंग्रेजी शब्दों की मिलावट कर दीजिए तो सब ठीक हो जाता है। ईमानदारी में भी बेईमानी की मिलावट को तरजीह दी जाती है। थानेदार बिना रिश्वत के काम करने का आश्वासन दे दे तो कंफ्यूजन बढ़ जाता कि काम होगा या नहीं?

राजनीति में तो ख़ैर मिलावट ही मिलावट है। टिकट न मिलने पर राजनेताओं की विचारधारा में मिलावट इतनी त्वरित गति से होती है कि तेल-गेंहू-दूध में मिलावट करने वाले घनघोर मिलावटबाज भी हैरान रह जाते हैं। लेकिन भोली जनता इस मिलावट उर्फ हद्य परिवर्तन पर राजनेताओं से कभी कोई सवाल नहीं पूछती। राजनेता भी जानने समझने लगे हैं कि सवाल पूछने का रिवाज नहीं है हमारे यहां। मजेदार बात ये कि विचारधारा की मिलावट के बीच कई बार कार्यकर्ता तक कंफ्यूज हो जाते हैं कि वो किस पार्टी के हैं क्योंकि कई बार रात में जिस पार्टी का झंडा लेकर सोने जाते हैं, सुबह उठकर पता चलता है कि वो तो विरोधी पार्टी का है।

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मिलावट के इसी स्वर्णकाल में सत्ता के ‘मौसम वैज्ञानिक’ केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान भी मिलावट का शिकार हो गए। वे खुद खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री हैं, लेकिन बीते दिनों सब्जीवाले ने उनके कर्मचारियों को भी मोम लगे सेब थमा दिए। वो तो देश का सौभाग्य है कि केंद्रीय मंत्री स्वयं कभी-कभी रशियन सलाद बनाने किचन में भी जाते हैं। वरना, कइयों को भ्रम है कि राजनेता है तो हर पांच साल पर सिर्फ लोगों को मूर्ख बनाने जाएगा। ख़ैर, मंत्रीजी मिलावट का शिकार हुए तो सब्जी बेचने वाले पर कार्यवाही लाजिमी थी। उसकी दुकान समेट दी गई। लेकिन प्रेस कॉन्फ्रेंस में मंत्रीजी ने धोखाधड़ी का जिक्र करते हुए सेब का जो दाम बताया-उसे लेकर अब आम लोग परेशान हैं। मंत्री जी ने कहा कि मोम लगे सेब 420 रुपए किलो के भाव से खरीदे गए थे।

मिलावट के स्वर्णकाल में अब जनता पूछ रही है कि अगर 420 रुपए किलो में भी शुद्ध सेब नहीं मिल सकते तो आम जनता जिसे सेब समझकर खाती है, वो क्या आइटम है? 

पीयूष पांडे

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