22 साल पहले का वो चुनाव, जितेंद्र प्रसाद की चुनौती, पायलट का समर्थन, सोनिया गांधी को मिले थे 99% वोट
अपेक्षित जैसा तय था वैसा ही कुछ देखने को मिला। नवंबर 2000 के चुनाव में 7,542 वैध मतों में से प्रसाद को सिर्फ 94 मिले। सोनिया को प्रदेश कांग्रेस समितियों (पीसीसी) के प्रतिनिधियों द्वारा डाले गए 7,448 या 98.75 प्रतिशत वोट मिले।
आज से ठीक 22 बरस पहले राजेश पायलट ने सोनिया गांधी को अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर चुनौती दी थी। नवंबर 2000 में जब बागी नेता जितेंद्र प्रसाद ने कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा तो राजेश पायलट ने जितेंद्र प्रसाद का साथ दिया। लेकिन उनकी मौत ने स्क्रिप्ट बदल दी। जितेंद्र प्रसाद चुनाव हार गए। यह आखिरी बार था जब कांग्रेस ने अपना बॉस चुनने के लिए मतदान किया था। ये एक विवादास्पद चुनाव की कहानी है जिसने गांधी-कांग्रेस की गतिशीलता को हमेशा के लिए बदल दिया और अब भी पार्टी के अध्यक्ष चुनाव पर इसका असर है।
1998 में सोनिया गांधी पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। यह एक ऐसा तख्तापलट था जिसमें सीताराम केसरी को पद से हटा दिया गया था और उनके सामान को एक जीप में पार्टी कार्यालय से दूर भेज दिया गया था, जिसके पीछे छुपा एक संदेश कि वो कभी वापस न आए। लेकिन जब कई लोगों ने सोचा कि गांधी ही सही मायने में पार्टी के हर मर्ज की दवा हैं, तो परेशानी शुरू हो गई। अगले साल, शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने खुला विद्रोह किया। उन्होंने महसूस किया कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की इतालवी मूल की पत्नी सोनिया अपने विदेशी मूल और सीमित राजनीतिक अनुभव के कारण देश को चलाने के लिए पर्याप्त रूप से फिट नहीं थी। बगावत की आवाज बुलंद करने वाले तीनों नेताओं को पार्टी से निकाल दिया गया है।
अब, इंदिरा गांधी के बाद के युग से, केवल दो दिग्गज ही उन्हें चुनौती दे सके थे। एक थे राजेश पायलट जो प्रधानमंत्री राजीव गांधी से लेकर पीवी नरसिम्हा राव तक की सरकार में मंत्री रह चुके थे। 1996 में केसरी से कांग्रेस का अध्यक्ष चुनाव हारने के बावजूद, पायलट कांग्रेस के अग्रणी पंक्ति के नेता बने रहे। जबकि दूसरे चुनौती देने वाले नेता जितेंद्र प्रसाद उतने प्रभावशाली या भी कहे की राजनीति रूप से शक्तिशाली नहीं थे। साल 2000 में केसरी के शेष कार्यकाल को पूरा करने के साथ, कांग्रेस को अपना नया अध्यक्ष चुनना पड़ा। केसरी के निष्कासन और तीन विद्रोहियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाए जाने के बाद ये उम्मीद की जा रही थी कि सोनिया निर्विरोध चुनीं जाएंगी।
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पायलट की दुर्घटना में मौत
लेकिन पवार के निष्कासन के बाद कांग्रेस के भीतर ही भीतर आक्रोश पनप रहा था। पायलट वंशवाद की राजनीति के खिलाफ असंतोष के केंद्र के रूप में उभरे। उन्होंने जे जयललिता और लालू यादव के साथ कांग्रेस के गठबंधन और कई अन्य मुद्दों पर अपना विरोध जताया था। उस दौर में कांग्रेस के भीतर अपने समकालीन माधवराव सिंधिया और दिग्विजय सिंह के विपरीत, केवल पायलट के पास वो निर्भिकता थी जो सोनिया को चुनौती दे सके। उन्होंने खुले तौर पर उनके नेतृत्व की आलोचना की, 10 जनपथ से दूर रहे और एक दिन प्रधानमंत्री बनने की अपनी इच्छा को भी कभी नहीं छिपाया। पायलट और प्रसाद दोनों ने सोनिया से पार्टी का नियंत्रण वापस लेने के लिए रैलियों का आयोजन करके एक अभियान शुरू किया। कांग्रेस सलाहकारों और सहयोगियों ने नेहरू-गांधी परिवार के योगदान और बलिदान का हवाला देते हुए दोनों पर पलटवार किया। लेकिन सारी कवायद में नया मोड़ तब आया जब जून 2000 में एक सड़क दुर्घटना में पायलट की मृत्यु हो गई। पायलट ने औपचारिक रूप से अपनी उम्मीदवारी की घोषणा नहीं की थी, लेकिन प्रसाद ने कांग्रेस के अध्यक्ष चुनाव में सोनिया के खिलाफ अकेले उम्मीदवार के रूप में लड़ाई करने का विकल्प चुना। सोनिया की कांग्रेस पर मजबूत पकड़ थी, लेकिन उनके प्रयासों से पार्टी को चुनावी सफलता नहीं मिल रही थी। उन्होंने 1999 के लोकसभा चुनावों में प्रचार किया जिसमें कांग्रेस हार गई और अटल बिहारी वाजपेयी ने फिर से केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनाई। 1998 में भी सोनिया ने प्रचार किया था, लेकिन तब उनके अंदरूनी दायरे ने पार्टी की हार के लिए तत्कालीन पार्टी प्रमुख केसरी को जिम्मेदार ठहराया था। 1999 में वह खुद पार्टी का नेतृत्व कर रही थीं। कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में बिहार और ओडिशा (तत्कालीन उड़ीसा) जैसे राज्यों को भी खो दिया।
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प्रसाद की चुनौती
दूसरी ओर प्रसाद उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में एक ब्राह्मण जमींदार परिवार के वंशज थे। जिसके पारिवारिक संबंध पश्चिम बंगाल में टैगोर और पंजाब के कपूरथला राज्य से थे। 1985 में, राजीव गांधी ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) का महासचिव और बाद में पार्टी में अपना राजनीतिक सचिव बनाया था। उस दौरान जितेंद्र प्रसाद ने कहा था कि मुझे व्यक्तिगत रूप से सोनिया गांधी से कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन मैं पार्टी कार्यकर्ताओं से मान्यता चाहता हूं। मैं असहमति और आंतरिक लोकतंत्र के अधिकार को बनाए रखने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं।
एकतरफा चुनाव
अपेक्षित जैसा तय था वैसा ही कुछ देखने को मिला। नवंबर 2000 के चुनाव में 7,542 वैध मतों में से प्रसाद को सिर्फ 94 मिले। सोनिया को प्रदेश कांग्रेस समितियों (पीसीसी) के प्रतिनिधियों द्वारा डाले गए 7,448 या 98.75 प्रतिशत वोट मिले। चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और बाद में प्रसाद ने कहा कि प्रक्रिया में धांधली की गई है। लेकिन उन्होंने निजी तौर पर यह भी स्वीकार किया कि एक निष्पक्ष प्रक्रिया भी उनकी जीत सुनिश्चित नहीं कर सकती थी। जनवरी 2001 में मस्तिष्क रक्तस्राव के बाद दिल्ली के एक अस्पताल में प्रसाद की मृत्यु हो गई। उनके बेटे जितिन प्रसाद अब बीजेपी में हैं और यूपी सरकार में मंत्री हैं।
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कांग्रेस के लिए आगे क्या?
उस चुनाव को 22 साल हो चुके हैं। और इस दौरान कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कोई चुनाव नहीं हुआ है। सोनिया अपने बेटे राहुल गांधी के दो साल के कार्यकाल को छोड़कर शीर्ष पर बनी हुई हैं, जो कन्याकुमारी से कश्मीर तक पांच महीने की भारत जोड़ो यात्रा के तीसरे सप्ताह में हैं और उन्होंने कहा है कि गांधी परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा। अब आखिरकार चुनाव हो रहा है। और एक गैर-गांधी (चाहे मल्लिकार्जुन खड़गे या शशि थरूर या कोई और) को पार्टी के चुनावी बैतरनी पार लगाने, पार्टी के भीतर सुधार लाने की जिम्मेदारी होगी। इस कार्य में कांग्रेस को राज्य के चुनावों और फिर 2024 में राष्ट्रीय चुनावों से पहले विपक्षी एकता बनाने के प्रयासों के केंद्र में रखना शामिल होगा, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए हैट्रिक लगाने की कोशिश में होंगे।
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