अति महत्वाकांक्षा के मोह में अपनी नैया खुद ही डुबो गए जीतन राम मांझी

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अंकित सिंह । May 28 2019 4:32PM

1980 में कांग्रेस पार्टी के आंदोलन ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को बुलाएंगे’ में शामिल होने के साथ ही मांझी के राजनीतिक सफर की शुरूआत होती है।

कहते हैं कि बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझना जितना मुश्किल है उससे ज्यादा मुश्किल है यहां के नेताओं का रंग समझना। यहां के नेता जरूरत के हिसाब से पाला बदलने में माहिर हैं तो राजनीतिक उथल-पुथल की स्थिति में मोल-भाव भी अच्छा कर लेते हैं। आज हम ऐसे ही नेता की बात करेंगे जो बिहार का एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर बन गया। जी हैं, वह नेता हैं जीतन राम मांझी। वैसे बिहार की राजनीति में मांझी को पासवान के बाद दूसरा मौसम वैज्ञानिक माना जाता है पर हाल में ही दो चुनावों में वह जिस गठबंधन में रहे उसका बेड़ा गर्क करा दिया। फिर भी अपने आप को दलितों का पुरोधा बताने से वह पीछे नहीं हटते। 

1980 में कांग्रेस पार्टी के आंदोलन ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को बुलाएंगे’ में शामिल होने के साथ ही मांझी के राजनीतिक सफर की शुरूआत होती है। इससे पहले मांझी डाक एवं तार विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे थे। इसके बाद मांझी कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और मंत्री भी बन गए। इसके बाद मांझी ने हवा का रूख देख पाला बदला और लालू के साथ हो लिए। जनता दल के बंटवारे के वाद भी वह लालू और राबड़ी के सरकार में मंत्री बने रहे। 2005 में वह जदयू में शामिल हो गए और नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री भी बन गए। पहले की सरकार में भ्रष्टाचार में शामिल होने का मांझी पर आरोप लगा और उन्हों इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि आरोपों से मुक्त होने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा उन्हें 2008 में राज्य सरकार के मंत्रिमंडल में दोबारा से शामिल कर लिया गया।  

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मांझी के जीवन में नया मोड़ 20 मई 2014 को आया जब नीतीश ने चुनावी हार की जिम्मेदारी लेते हुए सीएम पद से इस्तीफा दिया और मांझी को मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ाया। 20 फरवरी 2015 से मांझी बिहार में सीएम रहे पर उनके लिए राजनीतिक परिस्थिति बदल चुकी थी। वह सत्ता में आए तो थे नीतीश के विश्वसनीय बनकर पर गए धुर-विरोधी होकर। इस दौरन मांझी अपने बेतुके बयानों और नीतीश से मनमुटाव को लेकर सुर्खियों में रहे। नीतीश ने भी मांझी को आगे कर के दलिल वोटों को साधने की कोशिश जरूर की थी पर मांझी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर भाजपा के जाल में फंसते चले गए। 

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भाजपा ने भी मांझी के बहाने दलित वोटों को साधने की कोशिश शुरू कर दी थी। मांझी ने 2015 में अपनी पार्टी बनाई हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में वह भाजपा नीत NDA के साथ रहे पर नीतीश के भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में वापस आने के साथ ही मांझी ने अपनी आंखें तरेरनी शुरू कर दीं। भाजपा ने भी विधानसभा चुनाव में करारी हार और नीतीश के गठबंधन में शामिल होते ही मांझी को महत्व देना कम कर दिया था। ‘मुसहर’ समुदाय से ताल्लुक रखने वाले मांझी की पार्टी विधानसभा चुनाव में 20 सीटों पर लड़ी थी और खुद मांझी दो सीटों पर। मांझी सिर्फ और सिर्फ अपनी एक सीट ही बचा पाने में कामयाब हुए और अपने समुदाय के वोट को भी NDA में ट्रांसफर नहीं करा पाए। 

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मोदी का गुणगान करने वाले मांझी ने पाला बदला और लालू और उनके लाडलों की राग अलापना शुरू कर दिया। मांझी मोदी और नीतीश के खिलाफ खूब मुखर हुए और आरक्षण को सबसे बड़ा चुनावी हथियार बनाया। बिहार के राजनीति के महारथी लालू भी मांझी को समझ ना सके और महागठगंधन में उन्हें शामिल तो किया ही, चुनाव लड़ने के लिए भी उनकी पार्टी को तीन सीटें दे दी। हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा लोकसभा चुनाव में अमनी तीनों सीट बूरे तरीके से हार गई और खुद मांझी अपनी सीट उस जगह से नहीं बचा पाएं जहां से वह 80 के दशक से चुनाव लड़ते आ रहे थे। अब हार के कारण की समीक्षा करने की बात करते हुए मांझी लालू के लालों को भी टारगेट कर रहे हैं। ऐसे में हम यह कह सकते हैं कि मांझी अभी भी अपने लिए कुछ संभावनाएं देख रहे हों। 

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