Vikram Batra Death Anniversary: विक्रम बत्रा ने कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को चटाई थी धूल, परमवीर चक्र से किए गए सम्मानित

भारत-पाकिस्तान के बीच साल 1999 में कारगिल युद्ध की लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई को जीतने में निर्णायक भूमिका कैप्टन विक्रम बत्रा ने निभाई थी। 07 जुलाई को कैप्टन बिक्रम बत्रा ने जान की परवाह न करते हुए अपने प्राणों को देश की रक्षा के लिए न्योछावर कर दिया था।
कारगिल युद्ध के हीरो और परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विक्रम बत्रा का 07 जुलाई को निधन हो गया था। उन्होंने देश की रक्षा के लिए अपने जान की परवाह न करते हुए अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया था। वह कारगिल युद्ध के हीरो होने के साथ ही बहुत बहादुर भी थे। बहादुरी के कारण ही उनको भारतीय सेना ने 'शेरशाह' तो पाकिस्तानी सेना से 'शेरखान' नाम दिया था। तो आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर कैप्टन विक्रम बत्रा के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में...
जन्म और परिवार
विक्रम बत्रा का जन्म 09 सितंबर 1974 को हुआ था। इनके पिता का नाम गिरधारी लाल बत्रा और मां का नाम कमला था। यह जुड़वा बच्चे थे, ऐसे में इनका नाम लव-कुश रखा गया था। जिसमें से लव विक्रम बत्रा और कुश यानी की उनके छोटे भाई विशाल बत्रा थे। विक्रम बत्रा की शुरूआती शिक्षा मां कमला के मार्गदर्शन में हुए। फिर केंद्रीय विद्यालय पालमपुर से 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने चंडीगढ़ के डीएवी कॉलेज से बीएससी किया। विक्रम एनसीसी के होनहार कैडेट थे, इसी वजह से विक्रम बत्रा ने सेना में जाने का निर्णय लिया।
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मर्चेंट नेवी की नौकरी को कहा था न
साल 1997 में विक्रम बत्रा को मर्चेंट नेवी से भी नौकरी का ऑफर आया था। लेकिन विक्रम ने लेफ्टिनेंट की नौकरी को चुना। साल 1996 में इंडियन मिलिट्री एकैडमी में मॉनेक शॉ बटालियन में विक्रम बत्रा का चयन हुआ और उनको जम्मू कश्मीर राइफल यूनिट, श्योपुर में लेफ्टिनेंट के तौर पर नियुक्त किया गया था। वहीं कुछ समय बाद उनको कैप्टन रैंक दिया गया था। विक्रम बत्रा के नेतृत्व में टुकड़ी ने 5140 पर कब्जा किया था।
यह दिल मांगे मोर
01 जून 1999 को विक्रम बत्रा की टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया था। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम बत्रा को कैप्टन बना दिया गया था। वहीं कैप्टन विक्रम बत्रा को श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। हालांकि बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बाद भी उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर 20 जून 1999 को इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया था।
शेरशाह के नाम से फेमस विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के माध्यम से विजय उद्घोष 'दिल मांगे मोर' कहा, तो न सिर्फ सेना बल्कि पूरे भारत में यह शब्द गूंजने लगे थे। इस लाइन का कई अन्य जगहों पर भी इस्तेमाल किया गया।
मृत्यु
वहीं 07 जुलाई 1999 को एक अहम चोटी को जीतने के इरादे से विक्रम बत्रा की बटालियन आगे बढ़ती है, इस चोटी पर पाकिस्तानी सेना ने कब्जा कर लिया था। इस दौरान बत्रा की बटालियन को भारी गोलीबारी का सामना करना पड़ता है। हालांकि विक्रम बत्रा के नेतृत्व में बटालियन चोटी पर सफलतापूर्वक कब्जा कर लेते हैं। लेकिन इस दौरान विक्रम बत्रा को दुश्मन सेना की गोलियां लग जाती हैं। इस दौरान विक्रम बत्रा के एक सैनिक राइफलमैन संजय कुमार को भी गोली लगती है और वह गंभीर रूप से घायल हैं।
विक्रम बत्रा अपने साथी की मदद करने के लिए आगे बढ़ते हैं। संजय कुमार एक खुली पहाड़ी पर फंसे होते हैं। लेकिन विक्रम बत्रा बिना किसी डर के आगे बढ़ते हैं और खतरनाक गोली बारी में वह अपने साथी तक पहुंचने में कामयाब रहते हैं। वह अपने सैनिक साथी को वहां से निकाल लेते हैं। लेकिन पहाड़ी से उतरते समय कैप्टन विक्रम बत्रा को गोली लग जाती है और 07 जुलाई 1999 को उनकी मृत्यु हो गई।
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