दीनदयाल जी होते तो दिल्ली चुनावों के नतीजों पर क्या कहते ?

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जिस सँवाद और आत्मीयता के धरातल पर भाजपा ने कैडर को खड़ा किया था वह फाइव स्टार कार्यसमिति बैठकों और आयतित मेटीरियल के आगे खुद को ठगा और हीन महसूस करता है। इसी तरह की गलती कांग्रेस भी कर चुकी है और उसकी सजा भुगत रही है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि पर बीजेपी दिल्ली विधानसभा का चुनाव एक बार फिर हार गई। यह पार्टी की लगातार छठवीं पराजय है उसी दिल्ली की गलियों में जहां की चौड़ी, लंबी, हरी भरी सड़कों से सजी लुटियंस में पार्टी की तूती बोल रही है। समकालीन राजनीति के दो सबसे ताकतवर नेताओं का हुक्म जहां चलता है। उसी दिल्ली में उन्हीं की छत्रछाया में यह लगातार तीसरी शिकस्त है। दीनदयाल उपाध्याय जी की पुण्यतिथि पर मिली यह शिकस्त क्या बीजेपी के लिए वाकई इस महान नेता के अक्स में कुछ सोचने का साहस पैदा कर सकेगी।

निःसंदेह मोदी शाह की जोड़ी ने बीजेपी को उस राजनीतिक मुकाम पर स्थापित किया जहां पार्टी केवल कल्पना ही कर सकती थी। दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाना बीजेपी और भारत के संसदीय लोकतंत्र में महज एक चुनावी जीत नहीं है। बल्कि यह एक बड़ी परिघटना है। अमित शाह और मोदी वाकई बीजेपी के अभूतपूर्व उत्कर्ष के शिल्पकार हैं। ये जोड़ी परिश्रम की पराकाष्ठा पर जाकर काम करती है। बावजूद बीजेपी के लिये अब सब कुछ पहले जैसा नहीं है। यह समझने वाला पक्ष है कि दीनदयाल उपाध्याय सदैव व्यक्ति के अतिशय अवलंबन के विरुद्ध रहे हैं। उन्होंने परम्परा और नवोन्मेष के युग्म की वकालत की। लेकिन सफलता की चकाचौंध अक्सर मौलिक दर्शन को अपनी चपेट में ले लिया करती है। बीजेपी के लिए मौजूदा चुनौती यही है जो चुनावी हार जीत से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। दिल्ली, झारखंड, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान में मिली शिकस्त यही सन्देश देती है कि वक्त के साथ बुनियादी पकड़ कमजोर होने से आपकी दिव्यता टिक नहीं पायेगी। बीजेपी की बुनियाद उसकी वैचारिकी के अलावा उसका कैडर भी है।

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यह दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ है कि पार्टी के अश्वमेघी विजय अभियान के कदमताल में उसका मूल कैडर बहुत पीछे छूटता जा रहा है। जिस सँवाद और आत्मीयता के धरातल पर पार्टी ने कैडर को खड़ा किया था वह फाइव स्टार कार्यसमिति बैठकों और आयतित मेटीरियल के आगे खुद को ठगा और हीन महसूस करता है। कभी यही गलती देश की सबसे बड़ी और स्वाभाविक शासक पार्टी कांग्रेस ने भी की थी। क्या बीजेपी भी आज उसी आलाकमान की भव्य और दिव्य संस्कृति का अनुशीलन कर रही है? राज्यों के मामलों को अगर गहराई से देखा जाए तो मामला कांग्रेस की कार्बन कॉपी ही प्रतीत होता है। दिल्ली में मनोज तिवारी का चयन हर्षवर्धन, विजय गोयल, मीनाक्षी लेखी जैसे नेताओं के ऊपर किया जाना किस तरफ इशारा करता है? जिस व्यक्तिवाद को पंडित दीनदयाल उपाध्याय जहर मानते थे। क्या उसे खुद पीने का प्रबंध बीजेपी राज्यों में नहीं कर रही है? बेशक मोदी और शाह के व्यक्तित्व का फलक व्यापक और ईमानदार है। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि करोड़ों लोगों ने बीजेपी को अपना समर्थन वैचारिकी के इतर सिर्फ शासन और रोजमर्रा की कठिनाइयों में समाधान के नवाचारों के लिए भी दिया है। राज्यों में जिस तरह के नेतृत्व को आगे बढ़ाया जा रहा है वे न मोदी शाह की तरह परिश्रमी हैं न ही ईमानदार।

मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, राजस्थान, झारखंड की पराजय का विश्लेषण अगर ईमानदारी से किया जाता तो दिल्ली में तस्वीर कुछ और होती। हकीकत यह है कि राज्यों में बीजेपी अपवादस्वरूप ही सुशासन के पैमाने पर खरी उतर पाई है। इन राज्यों में न बीजेपी का कैडर अपनी सरकारों से खुश रहा न जनता को नई सरकारी कार्य संस्कृति का अहसास हो पाया है। आज मप्र में लोग कहते हैं कि सरकार बदलने से क्या फायदा हुआ? यानी आम वोटर आज भी व्यवस्था के दंश से मार खा रहा है और उसकी नजर में बीजेपी और कांग्रेस की शासन व्यवस्था कोई मूल बदलाव नहीं दे पा रही है। हकीकत यह है कि बीजेपी सत्ता में आती तो अपने कैडर की मेहनत से है लेकिन सत्ता आते ही उसका कैडर धकिया दिया जाता है। नए जानकार आगे आ जाते हैं जो शासन के चिर तत्व है। मप्र, छतीसगढ़, राजस्थान, झारखंड में नारे लगते थे वहां के मुख्यमंत्रीयों की खैर नहीं मोदी तुमसे वैर नहीं। इसे समझने की कोई ईमानदार कोशिश आज तक नहीं हुई है। यानि राज्यों को केवल उपनिवेश समझ कर आप संसदीय राजनीति के स्थाई तत्व नहीं बन सकते हैं। यही बुनियादी गलती कांग्रेस ने की थी जिसे आज समय रहते बीजेपी नहीं पकड़ पाई तो आगे का सफर "स्वयं स्वीकृतम कंटकाकीर्ण मार्गम" साबित होगा।

यह सही है कि राज्य दर राज्य पराजय के बावजूद बीजेपी का वोट प्रतिशत कम नहीं हुआ है, भरोसा अभी खत्म नहीं हुआ है। लेकिन इस भरोसे को सहेजने की ईमानदारी भी कहीं दिखाई नहीं दे रही है। पार्टी  वामपंथी और नेहरूवादी वैचारिकी से लड़ती दिखाई देती है लेकिन इसके मुकाबले के लिये क्या संस्थागत उपाय पार्टी की केंद्र और राज्यों की सरकारों द्वारा किये गए हैं? इसका कोई जवाब नहीं है। पार्टी ने सदस्यता के लिये ऑनलाइन अभियान चलाया लेकिन उस परम्परा की महत्ता को खारिज कर दिया जब उसके स्थानीय नेता गांव, खेत तक सदस्यता बुक लेकर 2 रुपए की सदस्यता करते थे और परिवारों को जोड़ते थे। आज पार्टी के पास संसाधन की कमी नहीं है लेकिन कैडर को कोई सम्मान भी नहीं है। जिन राज्यों में पार्टी सत्ता से बाहर हुई है वहां आज वे चेहरे नजर नहीं आते हैं जो सरकार के समय हर मंत्री के कहार बने फिरते थे। मप्र में आधे मंत्री चुनाव हारे और 6 सीट से सत्ता चली गई। कमोबेश हर राज्य में यही हुआ है। यानी पार्टी सत्ता के पुण्य पाप का वर्गीकरण राज्यों में तो नहीं कर पा रही है। यह स्वयंसिद्ध है। हर राज्य में अफ़सरशाही हावी रहती है और उसके सीएम, मंत्री उसकी बजाई बीन पर नाचते रहते हैं। नतीजतन राज्यों में बीजेपी का कैडर ठगा रह जाता है। जिस परिवारवाद पर प्रधानमंत्री प्रहार करते हैं वह बीजेपी में हर जिले में हावी है। हर मंडल और जिला स्तर पर सत्ता से सम्पन्न हुए चंद चिन्हित चेहरे ही आपको नजर आएंगे जो संगठन, सत्ता, टिकट, कारोबार, सब जगह हावी हो गए हैं। जाहिर है बीजेपी अपनी ही जड़ों से न्याय नहीं कर पा रही है।

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पार्टी का मजबूत आधार आज भी सवर्णों, पिछड़ों और दलितों के बीच बरकरार है। यह समझने की अपरिहार्यता है कि भारत अब "इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा" के दौर से काफी आगे निकल चुका है। आज का भारत खुली आंख से सोचता है वह 370, आतंकवाद, कश्मीर, तुष्टिकरण, पाकिस्तान से निबटने के लिए मोदी में भरोसा करता है तो यह जरूरी नहीं कि मोदी के नाम से वह अपने स्थानीय बीजेपी विधायक के भ्रष्टाचार और निकम्मेपन को भी स्वीकार करे। मतदाता मोदी को वोट देंगे पर झारखंड में किसी रघुबर दास को क्यों वोट करें जो अक्षम होने के साथ ईमानदार भी नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, "अगर मेरी पार्टी किसी गलत आदमी को अपना टिकट दे दे तो जनता की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह ऐसे आदमी को हरा दे।" क्या इस दर्शन को प्रतिष्ठित करेंगे नए अध्यक्ष जेपी नड्डा।

-डॉ. अजय खेमरिया

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