मीडिया तारीफ करता रहे तो ठीक है, राजनीतिक पार्टियां आलोचना नहीं सुन सकतीं

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हाल ही में हुए लोकसभ चुनाव में लगभग सभी दलों ने मीडिया को जमकर कोसा। इतना ही नहीं मीडिया को धमकी भरी चेतावनी तक दी गई। कारण स्पष्ट है कि मीडिया निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीके से चुनाव के परिणामों का आकलन कर रहा था।

राजनीतिक दलों की नियति बन चुकी है अपनी गलतियों को छिपाने के लिए मीडिया के सिर पर ठीकरा फोड़ने की। राजनीतिक दलों को इसके लिए सबसे आसान शिकार मीडिया ही नजर आता है। इसी कड़ी में तमिलनाडू के सत्तारूढ़ दल एआईएडीएमके ने मीडिया को गैर आधिकारिक खबरें देने पर कार्रवाई करने की धमकी दी है। इससे पहले भी राजनीतिक दलों द्वारा मीडिया के धमकाने की इसी तरह की कवायद की जाती रही है। सत्तारूढ़ दलों का प्रयास यही रहता है कि उनके विरोधी दलों के खिलाफ मीडिया खूब लिखे−बोले पर अपने खिलाफ चुप रहे।

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इससे पहले उत्तर प्रदेश में एक मीडियाकर्मी को पुलिस ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर टिप्पणी करने पर गिरफ्तार कर लिया। आखिरकार मामला जब सुप्रीम कोर्ट गया तो कोर्ट ने पुलिस से पूछ लिया कि आखिर किस कानून के तहत यह र्कारवाई की गई है। कोर्ट ने पुलिस को चेताते हुए मीडियाकर्मी को रिहा करने के आदेश दिए। इस कार्रवाई की गूंज अभी थमी भी नहीं थी कि उत्तर प्रदेश रेलवे पुलिस ने नए कारनामे को अंजाम दे दिया। जीआरपी ने मालगाड़ी के पटरी से उतरने की कवरेज पर गए मीडियाकर्मी की जमकर पिटाई की और उसे हवालात में बंद कर दिया। पुलिस बर्बरता का वीडियो वायरल होने पर सरकार को अपनी किरकिरी से बचने के लिए आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ र्कारवाई करनी पड़ी।

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राजनीतिक दलों के लिए मीडिया किसी अछूत की तरह है। यदि मीडिया उनका गुणगान करता रहे तब तक उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती, किन्तु उनके खिलाफ लिखने या बोलने पर वह दुश्मन बन जाता है। यह हालत सभी राजनीतिक दलों की है। आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक दल देश में लोकतंत्र की दुहाई देते हैं। दुहाई देते वक्त यह भूल जाते हैं कि गैर सरकारी और स्वतंत्र मीडिया के बगैर लोकतंत्र का बने रहना संभव नहीं है। लोकतंत्र की बुनियादी शर्तों में मीडिया का स्वतंत्रता शामिल है। इसके बगैर तंत्र कैसा भी हो, लोकतंत्र नहीं हो सकता।

हाल ही में हुए लोकसभ चुनाव में लगभग सभी दलों ने मीडिया को जमकर कोसा। इतना ही नहीं मीडिया को धमकी भरी चेतावनी तक दी गई। कारण स्पष्ट है कि मीडिया निष्पक्ष और स्वतंत्र तरीके से चुनाव के परिणामों का आकलन कर रहा था। यह आकलन जिन दलों के खिलाफ था, उनका पारा गुस्से से छलक उठा। ऐसे दलों ने मीडिया को विभिन्न उपाधियों से नवाज दिया। मसलन मीडिया बिकाऊ है, झूठा है इत्यादि और साथ ही सबक सिखाने की धमकियां दी गई। मीडिया के साथ ही स्वतंत्र संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग भी निशाने पर रहा। ईवीएम को लेकर तरह−तरह की अफवाहें फैलाने में राजनीतिक दलों ने कसर बाकी नहीं रखी। इसको लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट तक चला। कोर्ट ने राजनीतिक दलों की मांग खारिज कर दी।

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पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बाकायदा मीडिया के खिलाफ अभियान चला दिया। चुनाव से पूर्व और उसके बाद अभी तक मीडियाकर्मियों को धमकियां और हमले जारी हैं। चुनाव की कवरेज के दौरान भी मीडियाकर्मियों पर हमले किए गए। लोकसभा चुनाव परिणाम आने पर राजनीतिक दल अपनी खीझ मीडिया पर निकालते रहे हैं। देश के मतदाताओं का भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पक्ष में दिया गया निर्णय विपक्षी दल पचा नहीं पाए। पहले तो चुनाव से पूर्व के आकलन को खारिज कर दिया गया। इसके बाद पोल सर्वे की रिपोर्टों को बकवास करार दिया गया। चुनाव परिणाम आने के बाद पूरी तरह हताश राजनीतिक दलों को पराजय स्वीकार करने में भारी तकलीफ हुई।

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कांग्रेस और सपा−बसपा सहित अन्य विपक्षी गठबंधनों की कलई खुल गई। सिद्धान्तों की बजाए स्वार्थों का यह गठबंधन चुनाव परिणाम आते ही टूटते देर नहीं लगी। आपसी कलह खुल कर होने लगी। सत्ता के बगैर पार्टियों का अनुशासन सड़कों पर आ गया। हार के चलते विपक्षी दलों में मचे घमासान की खबरें जब मीडिया में आने लगीं तो गलतियों को सुधारने के बजाए मीडिया पर ही पाबंदी लगाए जाने लगी। समाजवादी पार्टी ने प्रवक्ताओं का पैनल भंग कर दिया। इसी तरह कांग्रेस में हार के बाद सिरफुटव्वल की नौबत के लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराया गया। कांग्रेस ने भी आधिकारिक तौर पर प्रवक्ताओं को मीडिया से दूर कर दिया। किसी तरह की प्रतिक्रिया देने पर प्रतिबंध लगा दिया।

राजनीतिक दलों ने आंतरिक लोकतंत्र का गला घोटते हुए सूचनाओं और खबरों पर पाबंदी लगा दी। हार के लिए मीडिया पर दोष मढ़ने, चुनाव के दौरान हमले झेलने और खबरें छिपाने−दबाने के तमाम प्रयासों के बावजूद मीडिया ने लोकतंत्र की पवित्रता में महत्वपूर्ण आहूति दी। चुनाव परिणाम में हार के बाद आपस में और दूसरों दलों को दोषी ठहरा रहे दलों ने कोई सबक नहीं सीखा। विपक्षी दल हार के हलाहल को पचा नहीं पाए और जहर मीडिया पर उगला जा रहा है। यह निश्चित है कि जब तक विपक्षी दल हार के लिए आत्मवलोकन नहीं करेंगे, उन्हें अपनी गलत नीतियां पता नही चलेंगी।

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मीडिया को दोषी ठहराने से फिर से सत्ता हासिल नहीं होगी। राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र पर जितनी पर्दादारी करेंगे, उतना ही उन पर संदेह बढ़ता चला जाएगा। देश में लोकतंत्र की जड़ें इतनी गहरी हैं कि मीडिया की आवाज को आसानी से दबाया नहीं जा सकता। इसके साथ ही स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के कानून को देश की न्यायपालिका भी दबने नहीं देगी। मतदाताओं के फैसले का सम्मान सभी राजनीतिक दलों को करना ही होगा। मीडिया मतदाताओं की ही मुखर आवाज है। चुनाव में हार−जीत चलती रहती, इसे पचाना राजनीतिक दलों को नहीं आएगा तो मीडिया को कोसने से कुछ नहीं होगा, बल्कि ऐसे दल ही लगातार दलदल में धंसते चले जाएंगे।

-योगेन्द्र योगी

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