Delhi University Students Union Elections 2025 में महिला नेतृत्व की वापसी और नए मुद्दों की गूंज

DU Students Union Elections 2025
Source X: @ABVPVoice/@NSUIDelhi

इस वर्ष का डूसू चुनाव खास है क्योंकि लगभग दो दशकों बाद अध्यक्ष पद की दौड़ में महिला उम्मीदवारों ने प्रमुखता से कदम रखा है। एनएसयूआई ने जोसलिन नंदिता चौधरी को उम्मीदवार बनाया है, जो 17 साल बाद इस पद की महिला दावेदार हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव केवल एक शैक्षणिक परिसर की आंतरिक राजनीति भर नहीं है। यह चुनाव राष्ट्रीय राजनीति का आईना भी है, क्योंकि यहां से उठे मुद्दे और नेतृत्व देश की दिशा तय करने में योगदान देते हैं। अनेक प्रमुख नेता चाहे वह अजय माकन हों, अरुण जेटली, विजय गोयल या दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता, सभी ने यहीं से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की है। यही कारण है कि डूसू चुनावों को हमेशा से देशभर का ध्यान मिलता रहा है।

इस वर्ष का चुनाव खास है क्योंकि लगभग दो दशकों बाद अध्यक्ष पद की दौड़ में महिला उम्मीदवारों ने प्रमुखता से कदम रखा है। एनएसयूआई ने जोसलिन नंदिता चौधरी को उम्मीदवार बनाया है, जो 17 साल बाद इस पद की महिला दावेदार हैं। वहीं, वामपंथी गठबंधन (एसएफआई-आइसा) ने अंजलि को मैदान में उतारा है। महिला नेतृत्व की यह वापसी केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि यह उन वास्तविक मुद्दों से जुड़ी है जिन्हें ये उम्मीदवार उठा रही हैं— जैसे मासिक धर्म अवकाश, सुरक्षित परिसर, लैंगिक संवेदनशीलता समिति का सशक्तिकरण और छात्राओं के लिए बेहतर सुविधाएं।

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इसके अलावा, इस बार घोषणापत्रों में नया तेवर भी देखने को मिल रहा है। हम आपको बता दें कि तीनों प्रमुख छात्र संगठनों— एबीवीपी, एनएसयूआई और एसएफआई-आइसा ने अपने घोषणापत्र जारी कर दिये हैं। एबीवीपी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार को प्राथमिकता देते हुए सब्सिडी वाले मेट्रो पास, मुफ्त वाई-फाई और स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाओं का वादा किया है। वहीं एनएसयूआई ने दिव्यांग छात्रों के लिए भत्ते, पूर्वोत्तर और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए विशेष सहायता, और महिलाओं के लिए अलग घोषणापत्र जारी कर समावेशिता पर जोर दिया है। दूसरी ओर, एसएफआई-आइसा गठबंधन ने फीस वृद्धि के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए छात्राओं के लिए मासिक धर्म अवकाश, और परिसर में लोकतांत्रिक समितियों की पुनर्स्थापना का वादा किया है। देखा जाये तो इन घोषणापत्रों से यह साफ झलकता है कि छात्र राजनीति अब केवल पोस्टर-बैनर की जंग नहीं, बल्कि नीतिगत बहस का मंच भी बन रही है।

लेकिन डूसू चुनावों का एक सच और भी है कि इन चुनावों की पुरानी छवि यानि धन और बाहुबल का प्रदर्शन, अब भी पीछा नहीं छोड़ रही। दिल्ली उच्च न्यायालय को हाल ही में सख्ती से यह कहना पड़ा कि ट्रैक्टर, जेसीबी और लग्जरी गाड़ियों से प्रचार करना चुनावी प्रक्रिया को दूषित करता है। अदालत ने साफ कर दिया है कि छात्र राजनीति में बाहुबल और धनबल को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। यह चेतावनी इसलिए अहम है क्योंकि यदि छात्र राजनीति भी पैसे और ताकत की गिरफ्त में आ जाएगी, तो यह लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करेगी। डीयू का परिसर केवल पढ़ाई का केंद्र नहीं, बल्कि देश की युवा चेतना का प्रतिबिंब है।

हम आपको बता दें कि डूसू चुनावों के परिणामों का असर हमेशा से राष्ट्रीय दलों की रणनीति पर पड़ता आया है। भाजपा समर्थित एबीवीपी और कांग्रेस समर्थित एनएसयूआई यहां आमने-सामने हैं, जबकि वामपंथी गठबंधन तीसरे ध्रुव की राजनीति को मजबूती से खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। यह परिदृश्य कहीं न कहीं राष्ट्रीय राजनीति की ध्रुवीकरण प्रवृत्तियों और नए विकल्पों की तलाश को दर्शाता है।

साथ ही, डूसू चुनावों की महत्ता केवल पदाधिकारियों के चुनाव तक सीमित नहीं है। यह भारत के लोकतांत्रिक भविष्य का संकेतक है। इस बार की विशेषता है— महिला नेतृत्व का उदय, छात्राओं के वास्तविक मुद्दों का केन्द्रीय होना और घोषणापत्रों में नीतिगत विमर्श की छाप। फिर भी असली चुनौती यही है कि क्या छात्र संगठन अदालत की चेतावनियों से सीख लेकर एक ऐसी राजनीति गढ़ पाएंगे जो धन और बाहुबल से मुक्त हो? यदि ऐसा होता है, तो डूसू चुनाव न केवल दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण बन सकते हैं।

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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