नवरात्रों में करें माता के इस चमत्कारिक मंदिर के दर्शन

Mundeshwari temple bihar

मां मुंडेश्वरी को लेकर कहा जाता है कि यहां लगभग 1900 सालों से लगातार पूजा होते आ रही है। यह बिहार के सर्वाधिक प्राचीन मंदिरों में से एक है। यह मंदिर बिहार के कैमूर जिले के भगवानपुर अंचल के 608 फीट ऊंची एक पहाड़ी जिसका नाम 'पवरा' पहाड़ी है उसी पर स्थित है।

17 अक्टूबर से नवरात्रों की शुरुआत हो चुकी है और कोरोना के इस दौर में भी लोगों के मन में आस्था की कोई कमी नहीं देखी जा रही है। हालाँकि लोगों को अभी भी सुरक्षा के सभी उपायों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि कोरोना को हमेशा के लिए ख़त्म किया जा सके। 

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अगर आप भी नवरात्रों के समय घूमने का मन बना रहे हैं तो आज हम आपको ऐसे ही माता के मंदिर के बारे में बताएँगे, जहां बलि देने के बाद रक्त नहीं बहता है। जी हां! हम बात कर रहे हैं मां मुंडेश्वरी मंदिर की जो बिहार में स्थित है।

क्या है मंदिर का इतिहास

मां मुंडेश्वरी को लेकर कहा जाता है कि यहां लगभग 1900 सालों से लगातार पूजा होते आ रही है। यह बिहार के सर्वाधिक प्राचीन मंदिरों में से एक है। यह मंदिर बिहार के कैमूर जिले के भगवानपुर अंचल के 608 फीट ऊंची एक पहाड़ी जिसका नाम 'पवरा' पहाड़ी है उसी पर स्थित है। 

इस मंदिर के प्रांगण में आपको अनेकों शिलालेख मिलेंगे. जो इस मंदिर के इतिहास की गाथा गाते हैं। यूं इस मंदिर के प्रांगण में राजा 'दुत्‍तगामनी' की मुद्रा भी प्राप्त हो चुकी है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह 101 से 77 ईसा पूर्व श्रीलंका में शासन किया करते थे। इसके साथ ही बौद्ध साहित्य में कहा गया है कि वह अनुराधापुर वंश के शासक थे।

मंदिर की कथा

इस मंदिर को लेकर अनेक कहानियां प्रचलित हैं और उन्हीं में से एक कहानी यह है कि जब चण्ड और मुंड नाम के दो राक्षस, लोगों के बीच बेहद उत्पात मचा रहे थे, तब मां 'मुंडेश्वरी' को प्रकट होना पड़ा। उनके वध के लिए माता प्रकट भी हुईं। 

कहा जाता है कि माता ने चण्ड नाम के राक्षस का वध कर दिया लेकिन मुंड नाम का राक्षस पहाड़ी पर आकर छुप गया। उसी को ढूंढते ढूंढते माता इस पहाड़ी पर आई और यहीं आकर उन्होंने मुंड नाम के राक्षस का वध किया। इसीलिए इस मंदिर को 'मुंडेश्वरी माता मंदिर' भी कहा जाता है।

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कैसे होती है बलि?

इस मंदिर में बकरे की बलि देने की परंपरा शुरू से रही है, लेकिन यहां पर बड़ी अनोखे तरीके से बलि चढ़ाई जाती है जिसमें एक बूंद भी रक्त नहीं बहता है। कहा जाता है कि जब किसी की मन्नत पूरी होती है तो वह प्रसाद के रूप में बकरे को माता के मूर्ति के सामने लाता है। तब मंदिर के पुजारी माता के चरणों से चावल उठाकर बकरे के ऊपर डालते हैं जिसके बाद बकरा बेहोश हो जाता है। वहीं कुछ देर के पश्चात एक बार फिर बकरे के ऊपर चावल डाला जाता है जिसके बाद बकरा होश में आ जाता है, और उसे आजाद कर बलि स्वीकार कर ली जाती है। इससे यह संदेश दिया जाता है कि माता रक्त की प्यासी नहीं है और जीवों पर दया करना माता का स्वभाव है।

मंदिर की बनावट

इतिहासकार बताते हैं कि इस मंदिर का निर्माण 108 ईस्वी में किया गया था और इस मंदिर का निर्माण शक शासनकाल में हुआ था। मंदिर के प्रांगण में लगे शिलालेख जिन पर ब्राम्ही लिपि में संदेश अंकित हैं, उसके आधार पर यह कहा जाता है कि यह 'शक' शासन काल का मंदिर है, क्योंकि शक शासन में ही ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया जाता था।

यूं यह मंदिर अष्टकार रूप में बना हुआ है। मंदिर के गर्भ गृह के बीचों-बीच चतुर्मुखी शिवलिंग की स्थापना की गई है और कोने में माता मुंडेश्वरी की मूर्ति लगाई गई है। माता की मूर्ति बाराही देवी के रूप में स्थापित की गई है, जिनमें महिषासुर उनके वाहन बने हैं। 

बता दें कि इस मंदिर की 97 मूर्तियों को जो कि बेहद दुर्लभ हैं, उन्हें पटना के संग्रहालय में रखा गया है और इसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण है इन मूर्तियों की सुरक्षा। इसके साथ ही मंदिर की 3 मूर्तियों को कोलकाता के संग्रहालय में भी सुरक्षित रखा गया है।

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कैसे पहुंचे?

माता मुंडेश्वरी के दर्शन के लिए आपको सबसे पहले बिहार के कैमूर जिले में पहुंचना होगा और अगर आप रेल मार्ग से आ रहे हैं तो मुंडेश्वरी कैमूर जिले से सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन भभुआ है। यहां से मंदिर की दूरी 25 किलोमीटर के आसपास है। आप हवाई मार्ग से आना चाहते हैं तो नजदीकी एयरपोर्ट वाराणसी है और यहां से 80 किलोमीटर की दूरी रोड के द्वारा तय कर आसानी से पहुंच सकते हैं। 

- विंध्यवासिनी सिंह

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