आतंकवाद विरोधी दिवसः विश्व को लील रहा आतंकवाद का दानव

फरवरी 2010 महाराष्ट्र के पुणे की मशहूर जर्मन बेकरी को आतंकवादियों ने अपना निशाना बनाया। जिसमें 16 लोग मारे गए। इन में से ज्यादातर लोग विदेशी थे। इस आतंकी हमले की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी।
ए आसमां! तेरे खुदा का नहीं है खौफ,
डरते हैं ए जमीं, तेरे आदमी से हम।
यहाँ शायर मानव को किसी आम आदमी से डरने की बात नहीं कर रहा, अपितु वह बात कर रहा है आतंकी, दस्यु, राक्षसों और दैत्यों की, जो मानवता के लिए अभिशाप हैं। जो ‘हिंस्र नरभक्षी पशु’ हैं, जिनके हाथ मासूम लोगों के खून से लथपथ हैं। ये अपने वहशीपन के कारण मानवता को त्रस देते हैं। आईए इन दरिंदों द्वारा किए गए कुछ दिल दहलाने वाले आतंकी हमलों पर नज़र दौड़ाते हैं-
14 फरवरी 2019 जम्मू से कश्मीर जा रहे सीआरपीएफ काफिले पर फियादीन हमला करके 44 जवानों को शहीद कर दिया गया। जिसकी जिम्मेवारी पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन जैश-ए-मुहम्मद लेता है। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। कोई बिरला ही होगा जिसकी आँखें देश के रक्षक वीरों के चीथड़े देखकर नम न हुई होंगी।
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मुंबई 13 जून 2011 को तीन जगह सीरियल बम बलास्ट कर 49 से ज्यादा लोगों की हँसती खिलखिलाती जिंदगियों को लील लिया।
फरवरी 2010 महाराष्ट्र के पुणे की मशहूर जर्मन बेकरी को आतंकवादियों ने अपना निशाना बनाया। जिसमें 16 लोग मारे गए। इन में से ज्यादातर लोग विदेशी थे। इस आतंकी हमले की जिम्मेदारी इंडियन मुजाहिदीन ने ली थी।
मुंबई 28 नवंबर 2008 का वो काला दिन कोई भी भारतीय कैसे भूल सकता है। जहाँ तीन दिनों तक आतंकवादियों ने अपनी घिनौनी मानिस्कता के चलते दहशत फैलाई। पाँच सितारा होटलों और रेलवे स्टेशनों पर हुए बम धमाकों में 200 के करीब लोग मारे गए और सैंकडों लोग घायल हो गए। इस आतंकी हमले की साजिश दुशमन देश पाकिस्तान द्वारा रची गई।
30 अक्टूबर 2008 को असम में 81 आतंकी हमले किए गए। जिसमें कम से कम 470 लोगों की जीवन लीला समाप्त कर दी गई और हज़ारों लोग इस नृसंहार में घायल हो गए। अगर हम सभी आतंकी हमलों का विवरण देने लग जाएं तो शायद यह आलेख कभी पूर्ण ही न होगा। खैर! अगर हम सन् 1994 से लेकर 2008 के आंकड़ों पर अपनी दृष्टि दौड़ाएं तो पता चलेगा कि इस समय दौरान 21,210 भारतीय नागरिक मारे गए। 7850 भारतीय सेना के सैनिक शहीद हो गए। और 26,078 आक्रमणकारी मारे गए। अगर हम ध्यान से देखेंगे तो यह आंकड़े भारत के विरूद्ध घटित किसी महायुद्ध से कम नहीं हैं। आतंकवाद की महाज्वाला में झुलसी मानवता का यह दिल दहलाने वाला ब्योरा है। भारत भूमि पर आतंकवाद के विकराल दैत्य ने लगभग 56,000 लोगों का रक्तपान किया है। संपूर्ण विश्व में कितना नरसंहार हुआ है, यह इतिहास के पन्नों में दबा रहे तो बेहतर होगा। इस आतंक के अनेकों नाम हैं। फिर चाहे वो वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को ध्वस्त करने वाला अलकायदा नामक आतंकी संगठन का कमांडर लादेन हो या फिर भारतीय संसद भवन पर हमला करने वाला जैश-ए-मोहम्मद का सरगना अफजल गुरू हो। इस आतंक के अनेकों नाम है तालिबान, हरकत-उल-मुजाहिदीन, हिज़बुल मुजाहिदीन, अल-उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रन्ट ऑफ असम, लशकर-ए-तैयबा इत्यादि। और भी अनेकों होंगे जो आतंक तो फैलाते हैं लेकिन बेनाम होकर।
आतंकवाद आखिर है क्या? क्या अंधाधुंध नरसंहार कर देना ही आतंकवाद है? तो इसका जवाब है नहीं! सज्जनों आतंकवाद थोथा नरसंहार नहीं है। दरअसल यह ‘आतंक’ का ‘वाद’ है। भाव आतंक या दहशत फैलाने की विचारधारा। एक प्रसिद्ध चीनी कहावत है- एक को मारो, दस हज़ार को आतंकित करो।
ऐसा कदापि नहीं है कि मानव की आतंकवादी वृति अभी कुछ दशकों पहले ही पनपी है। इस वृति का इतिहास तो मानव जितना ही प्राचीन है। मानव सभ्यता के सिरमौर माने जाते सत्युग को ही लीजिए। उस समय भी हिरण्यकशिपु व हिरण्याक्ष जैसे शक्तिशाली दैत्य इस धराधाम पर थे। त्रेता में रावण, कुंभकरण, मेघनाद, दुंदुभिं राक्षस, ताड़का राक्षसी, सिंहिका इत्यादि आतंकवाद के ही विभिन्न नाम है। द्वापर में इन आतंकी शक्तियों को भगवान श्री कृष्ण ने आतातायी कहा है।
कलयुग की बात करें तो पाश्चात्य इतिहासकार ‘सीथियन’ को इस युग का सबसे पहला आतंकवादी कबीला मानते हैं। कहा जाता है कि ढ़ाई हज़ार वर्ष पूर्व पाया जाने वाला यह कबीला सामूहिक आतंकवाद का गढ़ था। इसके निवासी बहुत ही क्रूर थे व पशुवत नरसंहार किया करते थे। मृतकों की खोपडि़यों को रिक्त कर मदिरापान करने हेतु उनकी प्यालियां बनाया करते थे। मृतकों के रक्त को मदिरा में घोलकर पीते, उनकी खाल खींचकर उससे टोपियां व चटाईयां बनाते। बर्बरता और दहशतगर्दी की अंतहीन गाथा था यह सीथियन कबीला। भारत में सन् 1398 में तैमूरलंग और 1739 में नादिर शाह इसी वर्ग के नृशंस आतंकवादी थे।
अतः आतंकवाद का चक्र सदा से ही विभिन्न रूप धारण कर चलता आया है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि ऐसी आतंकी शक्तियां नागफनी की तरह सिर ही क्यों उठाती हैं? क्यों मानव आतंक की भट्टी में तपकर पशुता से भी घिनौना आकार ले लेती है? आखिर इस आतंकवाद का कारण और आधारशिला क्या है?
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हमारे विद्वजनों व विश्लेषकों ने इसके अनेकों राजनैतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक, मनोवैज्ञानिक आदि कारण बताए हैं। जैसे साक्षरता का अभाव, बेरोज़गारी, नैतिक मूल्यों में गिरावट, साम्प्रदायिक हठवादिता, हिंसक वृति आदि। निःसंदेह यह सभी कारण सामाजिक भूमि पर बिखरे बीज हैं। जिनमें आतंकवाद की विषाक्त पौध जन्म लेती है। क्या आप जानते हैं, कि आतंकवादी दस्तों में तैयार किया गया एक मानव बम किन तैयारियों के साथ अपने मिशन पर जाता है? वह खुद को बमों की लडि़यों, बारूद, बंदूकों इत्यादि विनाशकारी साधनों से लैस करता है। फिर अपनी जेब में अपना पाक ग्रन्थ रखता है। जब मानव बम विस्फोट करता है तो- बिस्मिल्लाह, अल्लाह हू अकबर का नारा लगाता है। जो यह दर्शाता है कि मानव बम खुद को दुराग्राही आतंकी नहीं अपितु खुदा की राह पर कुर्बान एक शहीद समझता है। तभी आतंकवादी गुटों के नाम भी इसी रूढि़वादिता को दर्शाते हैं जैसे जैश-ए-मोहम्मद भाव मोहम्मद की सेना, हिजबुल मुजाहिदीन अर्थात स्वतंत्रता सेनानियों का दल। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि जो रहमदिल पैगंबर किसी की आह पर भी पिघल जाते थे, वे जबरन किसी को मारकर किसी मतवाद की इमारत को खड़ा करने का फुरमान क्यों जारी करेंगे? इस्लाम शब्द अरबी के ‘सलम’ से बना है। जिसका अर्थ होता है अमन या सुकून। इसलिए विचार करें कि क्या इस्लाम की कोई सीख किसी का अमन चैन को हताहत कर सकती है? ऐसा होना मुमकिन ही नहीं क्योंकि सृष्टि का अटल नियम है- A (Wholesome) truth cannot contradict another (Wholesome) truth. एक संपूर्ण सत्य दूसरे संपूर्ण सत्य को नहीं काट सकता। यह तो सत्य की हत्या है। जिहाद शब्द के साथ भी यही हुआ है। ‘जि़हाद’ शब्द अरबी के ‘ज़हद’ शब्द से निकला है। ज़हद भाव To struggle/ to strive in the way of allah अल्लाह की राह पर मेहनत व संघर्ष करना। यहाँ पर दो तरह की जि़हाद की बात की गई-
1- जिहाद-ए-बातिन अर्थात आंतरिक विकारों व वासनाओं से युद्ध या जि़हाद करना।
2- जि़हाद-ए-बातिल जिसका भाव होता है, समाज में व्याप्त अधर्म व अन्याय के खिलाफ जि़हाद करना।
तो क्या इस प्रकार बेरहमी से कत्लेआम करने से अल्लाह खुश हो जाएगा? यह ‘जि़हाद’ नहीं अपितु इन्सानियत के खिलाफ मात्र ‘फसाद’ है। इस ‘फसाद’ को रोक देना चाहिए क्योंकि खुदा ऐसे फसाद को पसंद नहीं करता। और यह तभी संभव है जब हम दैविक मूल्यों को मात्र किताबों तक सीमित न करके अपने वास्तविक जीवन में भी धारण करेंगे। तभी हमें समस्त मानव जाति में ‘वसधैव कुटुम्बकम्’ के भाव को जी पायेंगे। यही शाँति का एकमात्र उपाय है।
- सुखी भारती
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