International Day for Older Persons: वृद्धावस्था को सजा नहीं, रचनात्मक मजा बनाये

International Day for Older Persons
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ललित गर्ग । Oct 1 2023 10:55AM

विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है।

अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस जिसे बुजुर्ग दिवस, वरिष्ठ नागरिक दिवस, प्रौढ़ दिवस अथवा वृद्धजन दिवस भी कहा जाता है, प्रत्येक वर्ष 1 अक्टूबर को मनाया जाता है। यह दिवस अपने वरिष्ठ नागरिकों का सम्मान करने, उनके वार्धक्य को सुखद बनाने एवं उनके सम्बन्ध में चिंतन करने के लिये मनाया जाता है। आज का वृद्ध समाज अत्यधिक कुंठाग्रस्त एवं उपेक्षित है और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व ही देता है। इस प्रकार अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज सर्वाधिक उपेक्षित, दुःखी, प्रताड़ित रहता है। वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है। इस दिशा में ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरुकता फैलाने के लिए 14 दिसम्बर, 1990 को इस दिवस को मनाने का निर्णय लिया और 1 अक्टूबर, 1991 को पहली बार यह दिवस मनाया गया, जिसके बाद से इसे हर साल इसी दिन मनाया जाता है।

प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्धावस्था जीवन की सांझ है। वस्तुतः वर्तमान के भागदौड़, आपाधापी, अर्थ प्रधानता व नवीन चिन्तन तथा मान्यताओं के युग में जिन अनेक विकृतियों, विसंगतियों व प्रतिकूलताओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक है वृद्धों की उपेक्षा। वस्तुतः वृद्धावस्था तो वैसे भी अनेक शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनावों और अन्यान्य व्यथाओं भरा जीवन होता है और अगर उस पर परिवार के सदस्य, विशेषतः युवा परिवार के बुजुर्गों/वृद्धों को अपमानित करें, उनका ध्यान न रखें या उन्हें मानसिक संताप पहुँचाएं, तो स्वाभाविक है कि वृद्ध के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन जाती है। इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा गया है कि-“जब मनुष्य यह देखे कि उसके शरीर की त्वचा शिथिल या ढीली पड़ गई है, बाल पक गए हैं, पुत्र के भी पुत्र हो गए हैं, तब उसे सांसारिक सुखों को छोड़कर वन का आश्रय ले लेना चाहिए, क्योंकि वहीं वह अपने को मोक्ष-प्राप्ति के लिए तैयार कर सकता है।” 

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संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि वृद्ध व्यक्ति ज्ञान और अनुभव के अमूल्य स्रोत हैं और उनके पास शांति, सतत विकास और हमारे ग्रह की सुरक्षा में योगदान करने के लिए बहुत कुछ है।’ फिर वृद्धजन क्यों स्वयं को इतना खाली, एकांकी एवं उदासीन बनाये हुए हैं? वृद्धावस्था में खालीपन एक बड़ी समस्या है। कहावत भी है कि खालीपन सजा भी है और मजा भी है। यह वृद्धावस्था को प्राप्त लोगों पर ही निर्भर है कि वे खालीपन में मजा ले रहे हैं, आनन्द ले रहे हैं या उसे सजा बना रहे हैं। एकान्त या खालीपन विडम्बना ही नहीं है, बल्कि एक दुर्लभ उपलब्धि है। एकांत का बहुत गहरा आध्यात्मिक महत्व है, वर्तमान युग में हर एक को एकान्त मिलना मुश्किल है। उम्र प्राप्त लोगों को एकान्त या खालीपन अधिक सुलभ है तो वह उसका रचनात्मक, सृजनात्मक एवं आध्यात्मिक उपयोग कर उसे अपना साथी बनाये। गार्डन में जो वृद्ध जाते हैं, आसन-प्राणायाम-योग करते हैं, वे शांत-एकान्त वातावरण में बैठकर अपने अनुभवों का लेखन भी कर सकते हैं, वृद्धों के पास अनुभवों का खजाना होता है। कई वृद्ध अस्पताल में जाकर अपनी सेवाएं दे सकते हैं। धर्म की जड़ पाताल में और पाप की जड़ अस्पताल में, यह साक्षात् अनुभव कर अपने वृद्धावस्था को उपयोगी बनाया जा सकता है।

विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है? हकीकत तो यह है कि वर्तमान पीढ़ी अपने आप में इतनी मस्त-व्यस्त है कि उसे वृद्धों की ओर ध्यान केन्द्रित करने की फुरसत ही नहीं है। आज परिवार के वृद्धों से कोई वार्तालाप करना, उनकी भावनाओं की कद्र करना, उनकी सुनना, कोई पसन्द ही नहीं करता है. जब वे उच्छृखल, उन्मुक्त, स्वछंद, आधुनिक व प्रगतिशील युवाओं को दिशा-निर्देशित करते हैं, टोकते हैं तो प्रत्युत्तर में उन्हें अवमानना, लताड़ और कटु शब्द भी सुनने पड़ जाते हैं। इन्हीं त्रासद स्थितियों को देखते हुए डिजरायली ने कहा था कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चात्ताप।’

कटू सत्य है कि वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यांे, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता।’ वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है। अपेक्षा इस बात की भी है कि वृद्ध भी स्वयं को आत्म-सम्मान दें। जेम्स गारफील्ड ने वृद्धों से अपेक्षा की है कि यदि वृद्धावस्था की झुरियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़पे दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने हो।’ एक आदर्श एवं संतुलित समाज व्यवस्था के लिये अपेक्षित है कि वृद्धों के प्रति स्वस्थ व सकारात्मक भाव व दृष्टिकोण रखे और उन्हें वेदना, कष्ट व संताप से सुरक्षित रखने हेतु सार्थक पहल करे। वास्तव में भारतीय संस्कृति तो बुजुर्गों को सदैव सिर-आँखों पर बिठाने और सम्मानित करने की सीख देती आई है। अगर परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण पोषण को तरस रहे हैं, तो यह हमारे लिए लज्जा का विषय है। वृद्धों को ठुकराना, तरसाना, सताना, भर्त्सनीय भी है और अक्षम्य अपराध भी। सामाजिक मर्यादा, मानवीय उद्घोष व नैतिक मूल्य हमें वृद्धों के प्रति आदर, संवेदना व सहानुभूति-प्रदाय की शिक्षा देते हैं। यथार्थ तो यह है कि वृद्ध समाज, परिवार और राष्ट्र का गौरव है। 

- ललित गर्ग

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