6 मई 1840 को ब्रिटेन में जारी हुआ था दुनिया का पहला डाक टिकट ‘पेनी ब्लैक’

Penny Black

पेनी ब्लैक डाक टिकट काले रंग में एक छोटे से चैकोर कागज पर छपा था। एक पेनी मूल्य के इस टिकट के किनारे सीधे थे और इस पर लिफाफे पर चिपकाने के लिए गोंद भी नहीं लगी होती थी। इस डाक टिकट से एक पेनी के खर्च पर 14 ग्राम तक का पत्र भेजा जा सकता था।

इंटरनेट क्रांति के चलते आज हम जहाँ चुटकियों में अपने मैसेज एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेज पा रहे हैँ वहीं जब इंटरनेट नहीं था तब मैसेज को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने के लिए कितना समय लगता था यह तो आप जानते ही हैं, यह समय था जब मैसेज चिट्ठी-पत्री से भेजे जाते थे। पर सोचिए, मैसेज भेजनें के लिए इन चिट्ठी-पत्री का इतने बड़े पैमाने पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाना कैसे सम्भव हो पाया होगा? यह सम्भव हो पाया डाक व्यवस्था से और इस डाक व्यवस्था को सफल बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई डाक टिकटों ने। 6 मई 1840 वह तारीख थी जब दुनिया का पहला डाक टिकट प्रचलन में आया और जिसकी बदौलत डाक व्यवस्था सुचारू रूप से आगे बढ़ पाई।

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आज 6 मई पर आइये जानते हैँ डाक टिकट के सफर और  इसके महत्व के बारे में -

आधिकारिक रूप से 6 मई 1840 को दुनिया का पहला डाक टिकट प्रचलन में आया था, इस टिकट के जारी होने की तारीख हालांकि 1 मई 1840 थी किन्तु डाक शुल्क लगाने और डाक पर चस्पा करने के लिए इसकी शुरूआत 6 मई 1840 से हुई।

इंग्लैंड में वर्ष 1840 में 6 मई को सबसे पहले इस डाक-टिकट की बिक्री की व्यवस्था शुरू की गई। इंग्लैंड में हालांकि डाक वितरण व्यवस्था इसके पहले भी चालू थी किन्तु तब डाक टिकट प्रचलन में न होने की वजह से बहुत कठिनाइयां थीं, पत्र भेजने वाले को भी डाकघर तक जाना ही पड़ता था और वहां जाकर पत्र पर पोस्ट मास्टर के दस्तख्त करवाने पड़ते थे। पत्र भेजने के लिए इंग्लैंड में पोस्टल व्यवस्था थी कि जो भी व्यक्ति किसी का पत्र भेजता उसे इसका कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था उलटे यह शुल्क  पत्र को पाने वाले को डाक खर्च के रूप में डाकिए को देना पड़ता था। किन्तु इससे समस्या यह आई कि बहुत बार डाक रिसीव करने वाला व्यक्ति डाक खर्च देने से बचने के लिए पोस्टमैन से डाक लेकर पढ़ तो लेता किन्तु उसे रिसीव करने से मना कर पत्र वापस कर देता। क्योंकि उस समय डाक ओपन हुआ करती थी, लिफाफे प्रचलन में नहीं थे। लोगों की इस आदत से सरकार को खासा नुकसान होने लगा। सरकार की इस समस्या के हल के लिए इंग्लैंड के एक विख्यात अंग्रेजी स्कूल टीचर, समाज सेवी सर रॉलैंड हिल ने एक पोस्टल रिफार्मर के तौर पर काम करते हुए डाक टिकट जारी करने का फैसला लिया जिससे डाक प्राप्त करने वाला डाक खर्च नहीं देगा, बल्कि डाक भेजने वाला संबंधित टिकट खरीदेगा और उसे डाक पर चस्पा करेगा, उसके बाद ही उसकी डाक को उसके दिए पते पर भेजा जाएगा। इस फैसले के बाद 1 मई 1840 को इंग्लैंड में ‘पैनी ब्लैक’ नाम से पहला डाक टिकट जारी किया गया। इस टिकिट में महारानी विक्टोरिया का चित्र अंकित था। इस टिकट का पहला आधिकारिक इस्तेमाल इंग्लैंड में 6 मई 1840 को हुआ।

पेनी ब्लैक डाक टिकट काले रंग में एक छोटे से चैकोर कागज पर छपा था। एक पेनी मूल्य के इस टिकट के किनारे सीधे थे और इस पर लिफाफे पर चिपकाने के लिए गोंद भी नहीं लगी होती थी। इस डाक टिकट से एक पेनी के खर्च पर 14 ग्राम तक का पत्र भेजा जा सकता था। उस समय इन डाक टिकट की इतनी मांग हुई कि कुल मिलाकर 6.8 करोड़ ‘पेनी ब्लैक’ डाक टिकट छापे गए। बाद में आवश्यकताओं के चलते इस टिकट और इस पर लगने वाली मुहर के रंग में परिवर्तन किए गए। 

पेनी ब्लैक टिकट एक वर्ष से भी कम समय तक प्रयोग में रहा, 1841 के बाद इसके स्थान पर पेनी रेड और पेनी ब्लू टिकट भी छापे गए। पेनी ब्लैक का रंग काले से लाल या नीला करने के पीछे कारण काली टिकट पर लाल रंग से चिन्हित निरस्त चिन्ह का ढंग से ना दिखना था, जबकि लाल या नीले रंग की टिकट पर काला निरस्त चिन्ह आसानी से दिख जाता था। 

रॉलैंड के सुझाव से सरकार को बहुत फायदा हुआ इससे लोगों का अनावश्यक खत लिखना भी कम हुआ और सरकार का नुकसान भी बच गया, रॉलैंड हिल को इसके लिए सर की उपाधि दी गई। इसके पश्चात एक-एक करके कई देशों ने अपना डाक टिकट जारी करना शुरू कर दिया।

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भारत पर उस समय ब्रिटेन का राज था ब्रिटेन में डाक टिकट की शुरूआत के बाद अंग्रेजों ने एशिया में भी डाक टिकट की शुरूआत करनी चाही। उन्होंने संयुक्त भारत के सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान में) और मुंबई कराची रूटमें प्रयोग के लिए सिंध डाक नाम से 1852 में डाक टिकट जारी किया गया। आधे आने मूल्य के इस टिकट को भूरे कागज पर लाख की लाल सील चिपका कर जारी किया गया था। यह टिकट बहुत सफल नहीं रहा, क्योंकि लाख टूटकर झड़ जाने के कारण इसको संभालकर रखना संभव नहीं था। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1 अक्टूबर 1854 को महारानी विक्टोरिया के चित्र वाले टिकट आधा आना, एक आना, दो आना, और चार आना मूल्य में जारी किए। इन टिकटों को लिथोग्राफी से मुद्रित किया गया था। भारत में सन् 1854 से 1931 तक डाक टिकटों पर रानी विक्टोरिया,राजा एडवर्ड सप्तम, जॉर्ज पंचम, जार्ज छठे के चित्र वाले डाक टिकट ही निकलते रहे। महारानी विक्टोरिया के समय में इंग्लैंड में ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड शासित विश्व के अनेक देशों के डाक टिकटों पर इंग्लैंड के शासकों के ही चित्र थे। फिर धीरे-धीरे इन टिकिटों में बदलाव देखे गए, इंग्लैंड में ही जुलाई, 1913 को पहली बार जारी एक डाक टिकट ‘ब्रिटेनिका’ पर मध्य डिजाइन में परिवर्तन नजर आया और फिर उसके बाद देशों की संस्कृति-सभ्यता, साहित्य-विज्ञान, इतिहास, भूगोल, जीव-जंतु, खेल-कूद, स्थापत्य-मूर्ति, राष्ट्रीय चिन्ह, विशिष्ट व्यक्ति, चित्र-कलाएं इत्यादि प्रदर्शित करते टिकट भी जारी होने लगे। 

स्वतंत्र भारत का पहला डाक टिकट 21 नवंबर 1947 को जारी हुआ। इसका उपयोग केवल देश के अंदर डाक भेजने के लिए किया गया था जिस पर भारतीय ध्वज का चित्र अंकित था और जय हिंद लिखा हुआ था। इस डाक टिकट की कीमत साढ़े तीन आना यानी 14 पैसा थी। इसके बाद कितने ही डाक टिकट जारी हुए। 

विशिष्ट व्यक्तियों के नाम पर भी भारत में अब तक कई डाक टिकट जारी हो चुके हैं। महात्मा गांधी पहले भारतीय थे, जिन पर डाक टिकट जारी किया गया, महात्मा गांधी पर भारत में सबसे अधिक टिकट जारी किए गए। सबसे बड़ा डाक टिकट 20 अगस्त 1991 को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर जारी हुआ और 14 नवंबर, 2013 को पूर्व क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर पर टिकट जारी किया गया, वह देश के पहले ऐसे जीवित व्यक्ति है, जिन पर डाक टिकट जारी हुआ। 

- अमृता गोस्वामी

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