बढ़ते शहरीकरण और सिकुड़ते जंगलों ने बाघों से उनका आशियाना छीना है

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आज बाघ संरक्षण देश ही नहीं बल्कि दुनिया के समक्ष भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। संरक्षण के अभाव में बाघ से मिलने वाले लाभ से भी हमें वंचित रहना पड़ रहा है। बढ़ते शहरीकरण और सिकुड़ते जंगलों ने जहां बाघों से उनका आशियाना छीना है।

हर साल पूरे विश्व में 29 जुलाई को बाघों की लुप्त होती प्रजातियों की ओर ध्यान आकर्षित करने व उनकी रक्षा एवं बाघों के पारिस्थितिकीय महत्व को उजागार करने की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाया जाता है। इसकी शुरूआत 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग टाइगर शिखर सम्मेलन में बाघों की दुर्दशा पर विश्वव्यापी ध्यान लाने के लक्ष्य के साथ हुई थी। यह चिंतनीय है कि भारत में बाघों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। कभी लोगों के बीच अपनी दहाड़ से दहशत पैदा करने वाले बाघ आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। बढ़ते शहरीकरण और सिकुड़ते जंगलों ने जहां बाघों से उनका आशियाना छीना है, वहीं मानव ने भी बाघों के साथ क्रूरता बरतने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जिसका परिणाम हमारे सामने हैं। 

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वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक बीते दो साल में देश में 201 बाघों की मौत हुई है। इनमें से 63 बाघों का शिकार किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में 116 और 2018 में 85 बाघों की मौत हुई है। 2018 में हुई गणना के अनुसार बाघों की संख्या 308 है। साल 2016 में 120 बाघों की मौतें हुईं थीं, जो साल 2006 के बाद सबसे अधिक थी। साल 2015 में 80 बाघों की मौत की पुष्टि की गई थी। इससे पहले साल 2014 में यह संख्या 78 थी। आज दुनिया में केवल 3,890 बाघ ही बचे हैं। अकेले भारत में दुनिया के 60 फीसदी बाघ पाये जाते हैं। लेकिन भारत में बाघों की संख्या में बीते सालों में काफी गिरावट आई है। एक सदी पहले भारत में कुल एक लाख बाघ हुआ करते थे। यह संख्या आज घटकर महज 1500 रह गई है। ये बाघ अब भारत के दो फीसदी हिस्से में रह रहे हैं।

गिरावट के पीछे कई कारण 

गति और शक्ति के लिए पहचाने जाने वाले इन बाघों की संख्या में आने वाली इस गिरावट के पीछे कई कारण जिम्मेदार हैं। इसमें पहला कारण तो निरंतर बढ़ती आबादी और तीव्र गति से होते शहरीकरण की वजह से दिनोंदिन जंगलों का स्थान कंक्रीट के मकान लेते जा रहे हैं। यूं कहें कि जंगल में जबरन घुसे विकास ने जानवरों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। वनोन्मूलन के कारण बाघों के रहने के निवास में कमी आ रही हैं। जिससे बाघों की संख्या घटती जा रही हैं। तो वहीं दूसरा कारण बाघों की होने वाली तस्करी है। बाघों के साम्राज्य में डिजिटल कैमरे की घुसपैठ और पर्यटन की खुली छूट के कारण तस्कर आसानी से बाघों तक पहुंच रहे हैं और तस्करी की रूपरेखा तैयार कर रहे हैं।

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चीन में कई देसी दवा, औषधि और शक्तिवर्द्धक पेय बनाने में बाघ के अंगों के इस्तेमाल के बढ़ते चलन के कारण भी बाघों की तस्करी की जा रही है। अन्य देशों के लोग अपनी निजी स्वार्थपूर्ति के कारण बाघों की तस्करी और शिकार करके उनके अंगों को चीन भेज रहे हैं। जिसके कारण बाघों की संख्या घट रही हैं। वैज्ञानिक ने एशिया में बाघों की आबादी की बढ़ोतरी के लिए 42 वनक्षेत्रों को मुफीद पाया है, लेकिन कई देशों में इन वनक्षेत्रों की हालत में सुधार नहीं आने के कारण बाघों की वंशवृद्धि नहीं हो पा रही है। इसी के साथ इन वनक्षेत्रों पर भूमाफियों की कुदृष्टि भी बाघों की घटती संख्या के लिए बड़ा कारण साबित हो रही हैं। बाघों को खतरनाक बीमारियों से भी खतरा बढ़ रहा है। वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि अभयारण्यों के आसपास रहने वाले कुत्ते संक्रामक बीमारी फैला रहे हैं, जो बाघों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। इसके अलावा करंट, आपसी संघर्ष, रेल-रोड एक्सीडेंट और जहर देकर मारने के कारण भी सामने आ रहे हैं। गौर करने वाली बात तो यह भी है कि अधिकतर बाघों की मौत इंसानी बस्तियों में घुसने और शिकारियों के हाथों हुई हैं और हो रही हैं। जंगलों में पानी के अभाव के कारण अक्सर बाघ मानव बस्तियों तक आने के लिए विवश हो रहे हैं। जिसके चलते कई बार बाघों के सिर पानी के बर्तन में फंसने की खबरें सुर्खियों में रहती है।


आहार श्रृंखला में बाघ सबसे बड़ा उपभोक्ता

बाघ परिस्थिति के लिए खास महत्व रखता है। पारिस्थितिकी पिरामिड तथा आहार श्रृंखला में बाघ सबसे बड़ा उपभोक्ता है। आज बाघ संरक्षण देश ही नहीं बल्कि दुनिया के समक्ष भी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। संरक्षण के अभाव में बाघ से मिलने वाले लाभ से भी हमें वंचित रहना पड़ रहा है। भारत में भारतीय वन्यजीव बोर्ड द्वारा 1972 में शेर के स्थान पर बाघ को भारत के राष्ट्रीय पशु के रूप में अपनाया गया था। देश के बड़े हिस्सों में इसकी मौजूदगी के कारण ही इसे भारत के राष्ट्रीय पशु के रूप में चुना गया था। इसके बाद सरकार ने बाघों की कम होती संख्या को देखते हुए 1973 में 'बाघ बचाओ परियोजना' शुरू की थी। जिसके तहत चुने हुए बाघ आरक्षित क्षेत्रों को विशिष्ट दर्जा दिया गया और वहां विशेष संरक्षण के लिए प्रयास किये गए। इसी परियोजना को अब 'नेशनल टाइगर अथॉरिटी' बना दिया गया है। बाघ को बचाने के लिए सरकार ने योजना व नीतियां बनाने में कोई कसर नहीं रखी है। लेकिन इतने इंतजाम के बाद भी बाघों की संख्या निरंतर कम क्यों होती जा रही है? यह बड़ा सवाल है। सच तो यह है कि राज्य सरकारों का उदासीन रवैया और रिश्वत की प्रवृत्ति ने संरक्षण के नाम पर बाघों तक पहुंचने वाले लाभ को बीच में ही निगल दिया है। इस कारण बाघ संरक्षण के सरकारी इंतजाम 'सफेद हाथी' साबित हो रहे हैं। सरकार ने वन्य जीव संरक्षण के नाम पर कई बड़े कानून बना रखे हैं। वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत राष्ट्रीय पशु बाघ को मारने पर सात साल की सजा प्रावधान है। लेकिन लचर स्थिति के कारण विरले लोगों को ही सजा हो पाती है। 

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उठाने होंगे कड़े कदम

इन हालातों में आवश्यकता है कि जंगल टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए और उसे पुलिस के समकक्ष अधिकार दिए जाने चाहिए। वन्य जीवों व जंगल से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना और सूखे व किसी भी आपदा जैसे कि आग वगैरह पर तुरंत और प्रभावी कार्रवाई के लिए आपदा प्रबंधन टीमों का गठन होना चाहिए। वन विभाग को बेहतर और आधुनिक साजो-सामान और अधिक अधिकार दिए जाएं। जिससे वे अवैध शिकारियों व लकड़ी तस्करों का मुकाबला कर पाएं। कानून का पालन और खुफिया तंत्र को विकसित किये जाने की जरूरत है। वनों और उसमें रहने वाले प्राणियों के बारे में लोगों को जागरूक करना पड़ेगा। अगर सभी लोगों को इस समस्या के दूरगामी परिणाम पता होंगे तो निश्चित रूप से राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों में इस मुद्दे को भी प्रमुखता से स्थान मिलेगा और सत्ता में आने पर कोई ठोस कदम उठाया जाएगा। साथ ही जन-सामान्य को चाहिए कि वे वन्य प्राणियों को दया व सहानुभूति की दृष्टि से देखें और ऐसे उत्पादों का बहिष्कार करें जिन्हें बनाने में वन्य जीवों के अंगों का इस्तेमाल किया जाता है। गाहे-बगाहे शहरी क्षेत्र में घुस आए किसी भी जंगली जानवर को जान से न मारें। बरसों से चली आ रही योजनाओं और घोषणाओं के हाल देखकर लगता है कि सघन वनों से इंसानी दखल बिलकुल समाप्त कर देना चाहिए। बाघों ने प्राचीनकाल से जंगलों पर राज किया है अगर उन्हें उनके हाल पर भी छोड़ दिया जाए तो शायद सब अपने-आप ही ठीक होने लगेगा पर इसके लिए हमें जंगलों से अपने पैर वापस खींचने होंगे। अब प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए कुछ हिस्सा तो हमें प्रकृति को वापस देना ही होगा। अंततः हमें समझना होगा कि विकास यदि साझी विरासत जल, जंगल और जमीन को नुकसान पहुंचा रहा है तो वो विकास नहीं है, अपितु विनाश है। 

-देवेन्द्रराज सुथार

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