चुनाव आयोग का कोड़ा ही लगाएगा नेताओं की जुबां पर लगाम

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यदि आयोग की नीयत में खोट है और इसी आधार पर लगता है कि आयोग किसी का पक्ष ले रहा है, तो उसके फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। सिर्फ यह कहते हुए कि आयोग निष्पक्ष नहीं है, उसके निर्देषों की अवहेलना नहीं की जा सकती। यह सीधे कानून की अवहेलना ही कहलाएगी।

आश्चर्य की बात है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी नेताओं को कानूनी अनुशासन की जरूरत है। चुनाव आयोग ने ऐसे बदजुबां नेताओं की जुबां पर लगाम लगाने के अनुशासन का का कोड़ा चलाया है। देश और समाज को बांटने वाले इनके बयानों को गंभीर मानते हुए इनकी जुबां पर चंद दिनों के लिए ही सही पर ताले लगाए गए हैं। ऐसे नेताओं से देश को सही दिशा में नेतृत्व देने की उम्मीद करना बेमानी है, जिन्हें सत्ता के स्वार्थ के आगे कुछ नजर नहीं आता। ऐसा नहीं है कि नेताओं को इस बात का अंदाजा नहीं है कि उनके बयानों से देश और समाज की समरसता को कितना नुकसान होगा, किन्तु अपने चुनावी फायदे के लिए समरसता को भंग करने में भी उन्हें कोई हिचक नहीं है। 

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उम्मीद यह की जाती है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि देश के लोगों से कानून के राज का क्रियान्वयन कराएंगे। ताकि आम लोग कानून की अनभिज्ञता से बचें और जानबूझ कर भी कानून हाथ में नहीं ले। अब जब देश को नेतृत्व देने के लिए चुनाव मैदान में उतरने वाले नेता ही कानून और नैतिकता की धज्जियां उड़ा रहे हों तो कल्पना की जा सकती है कि ऐसे नेता देश को कैसा नेतृत्व देंगे। देश को लोगों से कानून की पालना की अपेक्षा से पहले इन्हें कानून की पाठशाला में अनुशासन का पाठ पढ़ाए जाने की जरूरत है। 

चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सपा नेता आजम खां और बसपा सुप्रीमो मायावती पर कुछ घंटों का चुनावी प्रतिबंध लगाकर यह संदेश भी दे दिया है कि मनमर्जी से नहीं, कानून के दायरे में रहकर ही सत्ता की लड़ाई लड़नी होगी। नेताओं के बिगड़े बोल के लिए आयोग का यह इलाज दूसरे दलों के नेताओं के लिए सबक होगा। चुनाव आयोग की इस सख्ती का सर्वाधिक दर्द मायावती को हो रहा है। मायावती ने इस कार्रवाई को दलित विरोधी करार दिया है। गौरतलब है कि अपने मुख्यमंत्री काल में करोड़ों रूपए की अपनी और चुनाव चिन्ह की मूर्तियां उत्तर प्रदेश में लगवाने वाली मायावती सरकारी धन की बर्बादी में जरा भी हिचक नहीं हुई। 

विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इस धन से दलितों की दरिद्रता दूर की जा सकती थी। दलितों की हितेषी होने का दंभ भरने वाली मायावती को तब इसका ख्याल नहीं आया। उन्हीं के खून−पसीने की गाढ़ी कमाई से मिले टैक्स के एक हिस्से को अपने आडंबर के लिए फूंक दिया गया। कानून के पालना की बात की जाती है तब उन्हें दलित याद आने लगते हैं। आयोग ने कानून का पाठ पढ़ाया तो इसे दलितों के साथ अन्याय करार दिया गया। सवाल यह है कि क्या देश में दलित के पैरोकारों को कानून से मनमानी की छूट मिली हुई है। कानून की नजर में सब समान हैं। इसकी क्रिन्यान्वति पर बेशक सवाल खड़े किए जा सकते हैं।

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मायावती ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी पर दलितों के शोषण−उत्पीड़न के आरोप लगाए थे। भाजपा से मंडराते खतरे के मद्देनजर बसपा और सपा एक हो गए। इससे जाहिर है कि सत्ता हर हाल में मिलनी चाहिए बेशक इसके लिए दलितों के शोषकों से ही क्यों न हाथ मिलाना पड़ें। पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मायावती से कम नहीं हैं। ममता को भी चुनाव आयोग केंद्र सरकार का पैरोकार नजर आता है। ममता ने भी आयोग को कोसने में कसर बाकी नहीं रखी। बंगाल में हुए पंचायत चुनाव के दौरान ममता ने आयोग के निर्देश मानने से इंकार कर दिए। मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब जाकर ममता ने मजबूरी में आयोग के निर्देशों की पालना की। 

यदि आयोग की नीयत में खोट है और इसी आधार पर लगता है कि आयोग किसी का पक्ष ले रहा है, तो उसके फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। सिर्फ यह कहते हुए कि आयोग निष्पक्ष नहीं है, उसके निर्देषों की अवहेलना नहीं की जा सकती। यह सीधे कानून की अवहेलना ही कहलाएगी। आयोग के फैसलों पर नाक−मुंह सिकोड़ने के बजाए विपक्षी दलों को कानून की पालना करने और कराने पर जोर देना चाहिए। चुनाव के बाद विपक्षी दल ही जीत कर यदि सत्ता में आ जाते हैं, तो क्या वे आयोग की कार्रवाई और निष्पक्षता पर संदेह जाहिर करेंगे। 

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आश्चर्य की बात तो यह है कि जब कभी आयोग को और अधिकार देने की बात आती है, तब सभी दल कन्नी काट लेते हैं। पर्याप्त कानूनी शाक्तियों के अभाव आयोग अभी तक आपराधिक आरोपों वाले प्रत्यााशियों पर रोक नहीं लगा सकता। आयोग द्वारा निर्धारित खर्च की सीमा से अधिक धन खर्च करने के मामले में भी आयोग के हाथ बंधे हुए हैं। इसी तरह मतदाताओं को लुभाने धन का उपयोग करने वाले प्रत्याशियों के खिलाफ आयोग कठोर कार्रवाई नहीं कर सकता। यदि आयोग को मजबूती देने के संवैधानिक प्रयास किए जाते तो न सिर्फ चुनाव साफ−सुथरे होते बल्कि लोकतंत्र भी सही दिशा में आगे बढ़ता।

यह बात काफी हद तक सही है कि सत्तारूढ़ दल ही आयोग के पदाधिकारियों की नियुक्ति करता है। जिनके संबंध सत्तारूढ़ दल के नेताओं से अच्छे होते हैं। ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आयोग सौ प्रतिशत निष्पक्ष होकर कार्रवाई करेगा। आयोग पर्दे में रहकर कार्रवाई नहीं कर सकता। ऐसे में यदि कहीं भी आयोग पर संदेह पैदा होता है तो उसकी आलोचना के साथ अदालत के दरवाजे भी खुले हुए हैं। इसके विपरीत केवल संदेह के आधार पर ही आयोग के निर्देषों को स्वार्थ के चष्मे से देखने की छूट किसी भी दल या उसके नेता को नहीं दी जा सकती। सत्तारूढ़ भाजपा के साथ विपक्षी दल के नेताओं को बोलने में संयम बरतने के लिए दी गई सजा नेताओं के बेलगाम बोलों पर लगाम लगाने का काम करेगी। नेता आयोग की नजर से बच नहीं पाएंगे। नेताओं को दी गई चुप रहने और चुनावी गतिविधियों से कुछ वक्त दूर रहने की सजा से आयोग के प्रति आम लोगों में विश्वसनीयता में इजाफा होगा। वैसे भी चुनाव आयोग लोकतंत्र का महत्वपूर्ण संवैधानिक स्तंभ है। इस पर भरोसे से ही लोकतंत्र मजबूत होगा।

- योगेंद्र योगी

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