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वैक्सिन ले लो वैक्सिन...रंग-बिरंगी वैक्सिन (व्यंग्य)
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
- जनवरी 9, 2021 13:03
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एक और पढ़े-लिखे से लगने वाले बेरोजगार ने पूछ लिया– देश और और विदेश की वैक्सिन में क्या फर्क है, जो हमें आपकी वैक्सिन खरीदने जैसी बेवकूफी करनी पड़ेगी? तिलमिलाने वाला सवाल सुनकर पहले तो डॉक्टर का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
‘साहब वैक्सिन ले लो वैक्सिन! सस्ती-सस्ती, अच्छी-अच्छी वैक्सिन! रस्ते का माल सस्ते में, लाया हूँ अपने बस्ते में! अभी नहीं तो कभी नहीं, मेरी वैक्सिन एकदम सही! दो वैक्सिन पर एक वैक्सिन फ्री! न रेजिस्ट्रेशन का लफड़ा, न ओटीपी की झंझट! आओ-आओ जल्दी आओ‘ वैक्सिन वाला एकदम फेरी वाले की तरह यही बातें रट्टा लगा रहा था। उसके पास एक ठेला था। ठेले पर कई टोकिरियाँ थीं। चना, मूँगफली, मटर की तरह रंग-बिरंगी वैक्सिनों से टोकरियाँ सजा रखी थी। लोग वहाँ से गुजरते और उसे अजीबोगरीब तरीके से देखते।
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जब उसे लगा कि सब उसे दल-बदलू नेता की तरह शक की निगाह से देख रहे हैं, तो उसने तुरंत अपनी सफाई में कहना शुरू कर दिया– मेहरबानों, कदरदानों और दुनिया को जानने वालों मैं ऐसा-वैसा फेरीवाला नहीं हूँ! एमबीबीएस पढ़ा-लिखा पूरा का पूरा डॉक्टर हूँ। इससे पहले कि सरकार फ्री में वैक्सिन देकर हमारे पेट पर लात मारे, मैं अपने अस्पताल ‘लूटले पेशेंट 24/7’ की ओर से पहले आओ-पहले पाओ स्कीम के तहत वैक्सिन का ऑफर दे रहा हूँ। तभी किसी ने उससे पूछ लिया कि जब सरकार मुफ्त में वैक्सिन देने वाली है तो हम तुम्हारी वैक्सिन क्यों लें? इस पर डॉक्टर ने कहा– सवाल में आपके दम है, लेकिन मेरे जवाब के आगे कम है। सरकार फ्री की वैक्सिन तो दे रही है लेकिन यह निर्णय नहीं कर पा रही कि दें तो किस देश का दें? कितना दें? कब दें? कहाँ दें? कैसे दें? और क्यों दें? कभी वह रूस की वैक्सिन तो कभी अमरीकी वैक्सिन की बात करती है। कभी ब्रिटेन की तो कभी कहीं ओर की। पता चला कि अपनी सरकार ही रातोंरात किसी राज्य में सत्ता परिवर्तन करने के लिए खुद की वैक्सिन बना ली। वह भी एक नहीं दो-दो! एक बात मानने वालों के लिए और दूसरी बात नहीं मानने वालों के लिए। अब ऐसे में सरकार कौन-सी वैक्सिन लगाएगी, इसको लेकर जनता काफी डरी हुई है।
एक और पढ़े-लिखे से लगने वाले बेरोजगार ने पूछ लिया– देश और और विदेश की वैक्सिन में क्या फर्क है, जो हमें आपकी वैक्सिन खरीदने जैसी बेवकूफी करनी पड़ेगी? तिलमिलाने वाला सवाल सुनकर पहले तो डॉक्टर का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। किंतु ग्राहकों को बेवकूफ बनाने के लिए खुद को शांत रखना बहुत जरूरी होता है, का फार्मूला याद कर मुस्कुराते हुए बोला– देखिए रूस और अमेरिका ने वैक्सिन नहीं एक-दूसरे को तमाचा मारने के लिए बहाना बनाया है। रूस राइटिस्ट-लेफ्टिस्ट के चक्कर में न यहाँ का रहा न वहाँ का। यही बात पूँजीपति अमेरिका ने बताकर भारतीय पूँजीपतियों को झोली में डाल रखा है और कैसे भी करके देश के समस्त बदनों में पूँजीपति का डोज उतरवाना है। अब अमेरिका को कौन बताए कि दुनिया के सबसे बड़े कुबेर भारत में रहकर शोषण की गंगा बहाते हैं। इसमें उनके काले धंधों का प्रदूषण इतना फैल गया है कि गंगा का पानी पीना तो दूर नहाने लायक तक नहीं छोड़ा है। हाँ, जहाँ तक अंग्रेजों की वैक्सिन की बात है तो उनका डिवाइड एंड रूल का वैक्सिन आज भी देश में ऐसे कायम है जिसके चलते हम हिंदू-मुस्लिम, ऊँच-नीच, जात-पात, भाषा, प्रांत, लिंग आदि भेदभाव की रामधुन रटते ही रहते हैं।
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मैं प्राइवेट अस्पताल चलाता हूँ। मेरा काम रोगी को भोगी बनाकर अपना उल्लू सीधा करना है। हम लूटते हैं तो लूटते हैं, वह भी कहकर लूटते हैं। हमारा ईमान किसी सरकार के झूठे वायदों से कहीं ज्यादा है। हम पैसा कमाने के लिए सब कुछ कर सकते हैं लेकिन धर्म, वर्ग, स्तर, भाषा, प्रांत, लिंग के आधार पर लोगों को लड़ाकर उन्हें चुनावी वैक्सिन लगाना नहीं जानते हैं। हम सामने से लूटने और आँखें खोलने में विश्वास रखते हैं। यही मेरी वैक्सिन की सच्चाई भी है।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
इधर उधर के बीच में (व्यंग्य)
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
- मार्च 2, 2021 18:38
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एक दिन सोसाइटी की मीटिंग हुई। मीटिंग में अधूरे पड़े कार्यों की समीक्षा की गयी। दूर के ढींगे हांकने वाले अध्यक्ष जी के काम नाम बड़े और दर्शन छोटे की तरह दिखाई दिए। उन्हें लगा कि आज उनकी खैर नहीं है। फट से उन्होंने अपना रंग बदला।
प्यारेलाल सरकाने और टरकाने का नुस्खा बड़ी सफाई से इस्तेमाल करते हैं। हर काम को कल पर टाल कर आज को आराम देह बनाने के लिए अपने टाइप के आधुनिक कबीर बनने का दावा करते हैं। उनकी मानें तो दौड़-धूप कर मेवा खाने से अच्छा बैठे-बिठाए रूखी सूखी खाना है। वे अपनी रेसिडेंस सोसाइटी के अध्यक्ष हैं। इसका उन्हें तनिक भी गुमान नहीं है। हाँ यह अलग बात है कि सुबह-शाम उन्हें सलाम न ठोंकने तथा जी हुजूरी करने से बचने वालों की खबर अच्छे से लेते हैं। ऊपर से ऐसे लोगों का काम मजे से लटका कर रखते हैं। लटकाने का यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक लटकू महाराज उनसे माफी मांग नहीं लेते।
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वैसे तो प्यारेलाल जी ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं हैं लेकिन अहंकार पढ़े-लिखों से ज्यादा है। अपने गुमान का पारा सदा सातवें आसमान पर रखते हैं। कभी कभार पत्नी उनकी पढ़ाई को लेकर चुहल बाजी कर बैठती है तो तैश में तिलमिला उठते हैं और कहते हैं- रिक्शा चलाने वाला पढ़ा-लिखा न हुआ तो क्या हुआ बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डाल कर खुद अंग्रेजों-सा फील करता है या नहीं? राधे लाल की पत्नी उन्हें छोड़ जमाना हो गया लेकिन मजाल कोई उन्हें महिला सशक्तीकरण पर भाषण देने से रोक कर दिखाए। व्यापार में डूबे हुए न जाने कितने विफलधारी व्यापार में सफलता के गुरु मंत्र नहीं बांटते क्या? खुद सिविल की परीक्षा की चौखट पर हजार बार माथा फोड़ने वाले कोचिंग सेंटरों में सिविल अधिकारी तैयार नहीं करते क्या? पावर में बने रहने के लिए दिमाग की नहीं समय को भुनाने की कला आनी चाहिए। पत्नी थक हार कर उनकी दलीलों के आगे नतमस्तक हो जाती है और अपने तीसमार खान पति की अड़ियलता को अपने कर्मों का फल मानकर मन मसोसकर रह जाती है।
एक दिन सोसाइटी की मीटिंग हुई। मीटिंग में अधूरे पड़े कार्यों की समीक्षा की गयी। दूर के ढींगे हांकने वाले अध्यक्ष जी के काम नाम बड़े और दर्शन छोटे की तरह दिखाई दिए। उन्हें लगा कि आज उनकी खैर नहीं है। फट से उन्होंने अपना रंग बदला। किसान नेता टिकैत की भांति आंखों में आंसू भर लिए और कहा- हमारे किसान दिल्ली की सीमाओं पर मर रहे हैं और तुम सब मुझसे हिसाब मांग रहे हो? मैंने सोसाइटी का कुछ फंड किराए पर ट्रैक्टर लेकर दिल्ली भिजवाने में खर्च कर दिए। बचा खुचा अयोध्या में भव्य मंदिर के निर्माण में लगा दिया। यह सुन सोसाइटी के सदस्य हक्के बक्के रह गए। इससे पहले कि सदस्य अध्यक्ष से सवाल करते उन्होंने तुरंत प्रत्येक सदस्यों के नाम वाले किसान समर्थक धर्मरक्षक का प्रमाण पत्र व्हाट्सएप कर दिया। सदस्यों को लगा हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा की तरह बिना दिल्ली गए किसान और बिना मंदिर गए आस्तिक बनना आज के समय की बड़ी उपलब्धि है। किंतु तभी एक सदस्य ने अध्यक्ष पर एक संदेह भरा सवाल दागा- किसान का समर्थन और मंदिर निर्माण के लिए दान जैसे कार्य दोनों पक्ष-विपक्ष का समर्थन करने जैसा विरोधाभासी कार्य है। वैसे हम सब किसकी और हैं?
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इस पर अध्यक्ष जी मुस्कुराए और बोले आज का समय पक्ष-विपक्ष में रहने वालों का नहीं दोनों और रहने वालों का है। ऐसे लोग सदा सुरक्षित और सुखी रहते हैं। वह दिन दूर नहीं जब स्त्री-पुरुष और अन्यों की तरह पक्ष-विपक्ष और वह उभय पक्ष की कैटेगरी होगी। मुझे सदस्य बनकर अध्यक्ष को और अध्यक्ष बनकर सदस्यों को डांटने का बड़ा शौक था। इसीलिए मैं सोसाइटी का सदस्य और अध्यक्ष दोनों हूं। जो दोनों और रहते हैं वही आगे बढ़ते हैं। यही आज के समय का सबसे बड़ा गुरु मंत्र है।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
उचित दूरी का मतलब... (व्यंग्य)
- संतोष उत्सुक
- फरवरी 25, 2021 17:01
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अब पुराना गाना जुबान पर आ रहा है, मानो तो मैं गंगा मां हूं न मानो तो बहता पानी। हमने मां विषय पर लाखों कविताएं लिखी लेकिन गंगा को सामान्य पानी समझ कर गंदा करते रहे। अमिताभ जैसी आभा ने करोड़ों बार समझाया कि उचित दूरी बनाकर रखें...
कृपया उचित दूरी बनाए रखें, सुन सुन कर मेरा मन आज भी संगीतमय हो उठता है और गुनगुनाने भी लगता है, उचित दूरी क्या है यह उचित दूरी क्या है। यह वैसा ही लगता है जैसा हम किसी ज़माने में गाया करते थे, चोली के पीछे क्या है या ज़्यादा शरीफाना अंदाज़ में आज भी गा सकते हैं, पर्दे के पीछे क्या है पर्दे के पीछे क्या है। लेकिन हम गा ऐसे रहे हैं, परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ। उचित दूरी का मतलब दो गज तो है लेकिन यह अभी तक भेद ही है कि दो गज की दूरी व्यवहार में कितनी है। इस दूरी के अपने अपने प्रयोग हैं जिन्होंने सबके भेद खोल दिए हैं। हम सब यही मानने लगे हैं कि जो उचित है वह अनुचित है और जो अनुचित है वह वास्तव में उचित है ठीक जैसे अनेक बार असवैंधानिक को वैधानिक मान लिया जाता है।
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अब पुराना गाना जुबान पर आ रहा है, मानो तो मैं गंगा मां हूं न मानो तो बहता पानी। हमने मां विषय पर लाखों कविताएं लिखी लेकिन गंगा को सामान्य पानी समझ कर गंदा करते रहे। अमिताभ जैसी आभा ने करोड़ों बार समझाया कि उचित दूरी बनाकर रखें, बार बार हाथ धोएं लेकिन सर्दी में सभी को गर्म पानी नहीं मिलता तभी शायद बार बार हाथ धोना मुश्किल है। जितनी दूरी उचित लगे, बनाकर रखी जाने बारे सलाह देने वाले भी ऐसी सलाह देते हैं जैसे, बीते न बिताए रैना बिरहा की जाई रैना। गलत चीज़ों से उचित दूरी न बनाए रखने के कारण डॉक्टर के पास जाना पड़ा, वहां एक कंपनी का विज्ञापन बोर्ड लगा हुआ था जिसमें लिखा हुआ था कि एक से डेढ़ गज की दूरी बनाए रखें। हमें यह किसी सूझ बूझ वाले समझदार व्यक्ति द्वारा रचाया लगा। उन्हें मालूम है आम क्लिनिक में खड़े होने की जगह भी नहीं होती तभी तो उचित दूरी की परिभाषा खुद ही बनानी ज़रूरी है। कोई पूछे, जनता के सेवक ने जनता के साथ उचित बातें करनी हों तो उचित दूरी बनाकर ही बात करेगा लेकिन उस उचित दूरी का निर्धारण उसे उस पुल के निर्माण की तरह करना होगा जो वह उचित जगह बनवाता है। मास्क लगाकर रखेगा तो मुस्कराहट कैसे अपनी वोट तक पहुंचाएगा। तभी यह सवाल बार बार होता है कि उचित दूरी क्या है, उचित दूरी का मतलब....
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एक सरकारी कार्यालय जाना हुआ जहां रोज़ काफी जनता आती है, वहां प्रवेश द्वार पर लिखे अनुरोध के अनुसार उचित दूरी तीन से छ फुट तक मानी गई। उचित शारीरिक दूरी को नए प्रायोगिक अर्थों में सामाजिक दूरी परिभाषित किया जा रहा है। यह एक सरकारी विवरणी की तरह हो गई है जिसमें नियंत्रक कार्यालय को उचित अंतराल पर पुष्टि भेज दी जाती है कि हमारे शाखा कार्यालय में अपाहिज व्यक्तियों के लिए रैंप का उचित प्रावधान किया गया है, लेकिन वास्तव में वहां सीमेंट की सीढियां ही रहती हैं। कहने और करने का व्यवहारिक फर्क रहता है। मुहब्बत कम होते ज़माने में, उचित दूरी का मतलब आई हेट यू ... भी तो नहीं हो सकता। जवाबों के बीच वही सवाल खड़ा है.......उचित दूरी क्या है।
संतोष उत्सुक
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- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
- फरवरी 23, 2021 17:44
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काश हमारे पास भी कोई दिशा रवि होती तो कितना अच्छा होता, जो हमारे सभी तरह के पेंच टाइट करने वाले पाने ढूँढ़ कर दे देती। अब दिशा को कौन बताए कि यहाँ किसी का पेंच ढीला है तो किसी का कुछ। किसी के मुँह का ढक्कन खुला हुआ है तो किसी के हाथ-पैर छूटे हुए हैं।
आप लोग टूल किट तो जानते ही होंगे। नहीं जानते? अरे भैया! वही औजारों की पेटी जिसमें ढूँढ़ने पर सब कुछ मिल जाता है सिर्फ हमारी जरूरत की चीज़ को छोड़कर। यह दुनिया भी तो एक टूल किट है। जहाँ सभी टूल सिर्फ और सिर्फ किट-किट करते रहते हैं। यह किट-किट बंद हो जाए तो संयुक्त राष्ट्र संघ लंबी छुट्टी के लिए जा सकता है। न किट-किट बंद होगी न कोई लंबी छुट्टी पर जाएगा।
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काश हमारे पास भी कोई दिशा रवि होती तो कितना अच्छा होता, जो हमारे सभी तरह के पेंच टाइट करने वाले पाने ढूँढ़ कर दे देती। अब दिशा को कौन बताए कि यहाँ किसी का पेंच ढीला है तो किसी का कुछ। किसी के मुँह का ढक्कन खुला हुआ है तो किसी के हाथ-पैर छूटे हुए हैं। किसी का खाली दिमाग बंद होने का नाम नहीं ले रहा है। इन सबके लिए टूल किट की जबरदस्त जरूरत आन पड़ी है। वह न जाने किस दिशा से आशा की रवि किरण बनकर आयी है कि सभी उसी के नाम का जप करने में व्यस्त हैं। टूल-अटूल किट-किट करावै, जब-जब दिशा का नाम सुनावै। दिशा ने मानो जंग लगे टूल किटों में जान फूँक दी है। जिन टूल के बारे में कल तक देश नहीं जानता था अब सबकी जुबान पर दिशानामी का रट्टा लगा हुआ है।
दिशा टूलकिट का अपने ढंग से इस्तेमाल करना चाहती थी। न जाने उससे कहाँ गड़बड़ हो गई कि टूल किट के खुलते ही तरह-तरह के स्क्रू ड्राईवर, स्पैनर, की-सैट, और चाबी-पाने खुलकर बिखर गये। किसान सरकार के पेंच टाइट करने में लगी थी वहीं सरकार दिशा जैसे टूल किटों की मालकिनों को टाइट करने में लगी थी। टाइट करने का असर यह हुआ कि किसी को दस्त तो किसी को उल्टी होने लगी। कुछ तो जंपिंग-जपांग करने में अपना हुनर दिखाने लगे।
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कोई महंगाई के टूल किट से समाज के सोने वाले लोगों को उठाने के लिए यूज होने वाले हैशटैग के अलावा किस दिन, किस वक्त और क्या ट्वीट्स या पोस्ट्स रूपी टूलोपयोग करना है, के बारे में बताता तो कितना अच्छा होता। यहाँ सभी अपने-अपने टूल किटों की किटकिटाहट में लगे हैं। कितना अच्छा होता कि सोशल मीडिया के टूलकिट में कट, कॉपी, पेस्ट मटेरियल और अंधभक्तों की हुड़दंग से बचाने वाले टूल्स होते। यहाँ महंगाई के बारे में कुछ कहने जाओ पेट्रोल, डीजल की कीमतें बढ़ाकर आम जनता के पेंच टाइट कर दिए जाते हैं। अस्पतालों के बारे में बात करो तो धर्म का पेंच बीच में फिट कर देते हैं। नौकरी देने के बारे में बात करो तो प्राइवेटीकरण का हथौड़ा लिये सरकारी संस्थाओं का रूप-नक्शा ही बदल दिया जाता है। देश में मुश्किल यह है कि जिनके पास टूल किट है उन्हें इस्तेमाल करना नहीं आता। जिन्हें इस्तेमाल करने आता है उनके पास टूल किट नहीं है। देश को तोड़ने वाली दिशा को जेल की दिशा तो दिखा दी गयी, लेकिन जो देश को जोड़ने का स्वांग रचाते हैं उनकी दिशा और दशा कैसे तय करेंगे....इसी को कहते हैं जिसका टूल उसी की किट...मैं हूँ फिट और तू है अनफिट।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

