भारत को जानो, भारत को मानो! आरएसएस विचारक मनमोहन वैद्य की किताब कराती है भारतबोध: प्रो.संजय द्विवेदी

आरएसएस विचारक मनमोहन वैद्य की पुस्तक 'हम और यह विश्व' आत्मदैन्य से मुक्त होकर 'भारत से भारत का परिचय' कराने का एक विश्लेषणात्मक प्रयास है, जो भारतीय संस्कृति, सभ्यता और हिंदुत्व जैसी अवधारणाओं को तर्क-तथ्यों और सहज संवाद शैली से स्पष्ट करती है। यह किताब संघ और भारत को समझने के लिए एक मार्गदर्शिका सिद्ध होती है, जो राष्ट्रबोध और चरित्र निर्माण को एक साथ देखती है, जिससे यह आज के समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक बन जाती है।
हमारे राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श में ‘विचारों की घर वापसी’ का समय साफ दिखने लगा है। अचानक हमारी अपनी पहचान के सवालों, मुद्दों, प्रेरणा पुरुषों और मानबिंदुओं पर न सिर्फ बात हो रही है, बल्कि तमाम चीजें झाड़ पोंछ कर सामने लायी जा रही हैं। सही मायने में यह ‘भारत से भारत के परिचय का समय’ है। लंबी गुलामी और उपनिवेशवादी मानसिकता से उपजे आत्मदैन्य की गहरी छाया से हमारा राष्ट्र मुक्त होता हुआ दिखता है। सच कहें तो हमारा संकट ही यही था कि हम खुद को नहीं जानते थे, या जानना नहीं चाहते थे। ‘भारत’ को ‘इंडिया’ की नजरों से देखने के नाते स्थितियां और बिगड़ती चली गईं। अब यह बदला हुआ समय है। अपने को जानने और अपनी नजरों से देखने का समय।
ऐसे समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक और चिंतक मनमोहन वैद्य की किताब ‘हम और यह विश्व’ भारत और संघ के विमर्श को बहुत प्रखरता से सामने लाती है। हम जानते हैं कि मनमोहन वैद्य संघ के उन प्रचारकों में हैं, जिनका जन्म नागपुर में हुआ और उनके पिता स्व.श्री एमजी वैद्य न सिर्फ प्राध्यापक और जाने-माने पत्रकार थे, बल्कि संघ के पहले प्रवक्ता भी रहे। ऐसे परिवेश में मनमोहन वैद्य की निर्मिति और रेडियो कैमेस्ट्री में पीएचडी करने के बाद भी उनका गृहत्याग कर संघ के प्रचारक के रूप में निकल जाना बहुत स्वाभाविक ही लगता है। किंतु बहुत गहरी अध्ययनशीलता और वैचारिक चेतना संपन्न मेघा ने उन्हें उनके संगठन के शीर्ष तक पहुंचाया। अप्रतिम संगठनकर्ता होने के नाते वे गुजरात के प्रांत प्रचारक से लेकर संघ के सहसरकार्यवाह जैसे पद तक पहुंचें। युवाओं से उनका संवाद निरंतर है और वे उन्हें बहुत उम्मीदों से देखते हैं। कथा-कथन की शैली में संवाद मनमोहन जी विशेषता है, उनकी इस संवाद शैली का असर उनके लेखन में साफ दिखता है। मराठी, हिंदी, गुजराती और अंग्रेजी में अपनी लोकप्रिय संवाद शैली से उन्होंने कई पीढ़यों को भावविभोर किया है। युवाओं के मन की थाह लेते हुए उनके सवालों के ठोस और वाजिब उत्तर देना उनकी विशेषता है। यही कारण है कि उनका लेखन और संवाद दोनों उनके व्यक्तित्व की तरह सरल-सरल है। वे संघ के दायित्व में लंबे समय तक अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख रहे हैं, उनमें विरासत से ही मीडिया की संभाल और संवाद कौशल की समझ मिली है। इस नाते वे संचार के महत्व को जानते भी हैं और मानते भी हैं। कम्युनिकेशन की यह समझ उनका अतिरिक्त गुण है।
मनमोहन जी की यह किताब पहले अंग्रेजी में आई और अब हिंदी में आई है, जिसे दिल्ली के सुरूचि प्रकाशन ने छापा है। संघ के शताब्दी वर्ष के मौके पर पूरे समाज और विश्व स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझने के लिए बहुत उत्सुकता है, ऐसे में यह किताब निश्चित ही संघ और भारत को समझने की गाइड सरीखी है। उनकी यह किताब भारतीय संस्कृति और सभ्यता के मूल तत्वों को स्पष्ट करने का प्रयास करते हुए बहुत सारे संदर्भों को सामने लाती है। मनमोहन जी विशेषता यह है कि वे अपने सहज संवादों की तरह लेखन में भी सहजता से बात रखते हैं। इस तरह वे लेखक से आगे एक शिक्षक में बदल जाते हैं जिसकी रुचि ज्ञान का आतंक पैदा करने के बजाए लोक प्रबोधन में है। उदाहरणों के साथ सहजता से विचारों का रखना उनका स्वभाव है।
उन्हें सुनने का सुख तो विरल है ही, उन्हें पढ़ना भी सुख देता है। लगातार अध्ययन और विदेश प्रवास ने उनमें बहुत गहरी वैश्विक अंर्तदृष्टि पैदा की है, जिससे भारतीय संस्कृति की उदात्तता उनके लेखन में साफ दिखती है। इन अर्थों में वे विश्वमंगल की वैश्विक भारतीय अवधारणा के प्रस्तोता बन जाते हैं। उनके लेखन में भावनात्मक उत्तेजना के बजाए बहुत गहरा बौद्धिक संयम है और तर्क-तथ्य के साथ अपनी बात कहने का अभ्यास उनका स्वाभाविक गुण है। इस किताब में प्रश्नोत्तर के माध्यम से उन्होंने जो कहा है, उससे पता चलता है कि उत्तर किस तरह देना। इन अर्थों में वे कहीं से जड़ और कट्टरवादी नहीं हैं। उनका अपार विश्वास भारत की परंपरा पर है, उसकी वैश्चिक चेतना है। संघ और हिंदुत्व को लेकर उनके विचार नए नहीं हैं, किंतु उनकी प्रस्तुति निश्चित ही विलक्षण और नई है। जैसे वे बहुत सरलता के साथ चार वाक्यों पर मंचों पर कहते हैं –
भारत को जानो, भारत को मानो, भारत के बनो, भारत को बनाओ।
यह पंक्तियां न सिर्फ प्रेरित करती हैं, बल्कि युवा चेतना के लिए पाथेय बन जाती हैं। उनका यह चिंतन उनकी गहरी भारतभक्ति और संघ से मिली विश्वदृष्टि का परिचायक है। इसलिए राष्ट्रबोध और चरित्र निर्माण को वे अलग-अलग नहीं मानते। उनकी दृष्टि में संघ की व्यक्ति निर्माण की अनोखी पद्धति इस देश और विश्व के संकटों का वास्तविक समाधान है। इस किताब के बहाने वे भारत,स्वत्व, हिंदुत्व, धर्म, सनातन जैसे आज के दौर के चर्चित शब्द पदों की व्याख्या करते हैं। इसके साथ ही वे सेकुलरिज्म, लिबरलिज्म तथा अखंड भारत जैसी अवधारणाओं के बारे में भी बात करते हैं।
चार खंडों में विभाजित इस पुस्तक के पहले खंड में ‘संघ और समाज’ के तहत कुल पंद्रह निबंध शामिल हैं जिनमें संघ से जुड़ी विषय वस्तु है। दूसरे खंड ‘भारत की आत्मा’ में 14 निबंध शामिल हैं, जो भारतबोध कराने में सक्षम हैं। तीसरे खंड ‘असहिष्णुता का सच’ में शामिल आठ निबंधों में वो कई विवादित मुद्दों पर बात करते हैं और राष्ट्रीय भावनाओं के आधार पर उनका विश्वेषण करते हैं। किताब के अंतिम अध्याय ‘प्रेरणा शास्वत है’ में उन्होंने पांच तपस्वी राष्ट्रपुत्रों को बहुत श्रद्धा से याद किया है जिनमें आद्य सरसंघचालक डा. हेडगेवार, दत्तोपंत ठेंगड़ी, पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, संघ प्रचारक रंगा हरि और अपने पिता एमजी वैद्य के नाम शामिल हैं।
पुस्तक के बारे में इतिहासकार डा. विक्रम संपत ने ठीक ही लिखा है कि-“डा. वैद्य के निबंध स्पष्ट तथ्यों के साथ सुंदर गद्य,मार्मिक भाव और कभी-कभी हास्य विनोद से भरपूर, आनंददायक और अविस्मरणीय पठनीयता प्रदान करते हैं। विचारों का एक ऐसा भंडार जो हर भारतीय हेतु यह समझने के लिए जरुरी है कि हम कौन हैं, हम किसकी ओर देखते हैं, हम कहां से आए हैं और आगे हम कहां जाना चाहते हैं। ”
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