आजादी के आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सक्रिय भूमिका को इतिहास में जानबूझकर शामिल नहीं किया गया!

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1930 के ‘जंगल सत्याग्रह’ में डॉ. हेडगेवार की गिरफ्तारी, शाखाओं में ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ मनाना और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों का भूमिगत क्रांतिकारियों को शरण देना, झंडारोहण करना और ब्रिटिश दमन का सामना करना, ये सब उनकी सक्रियता के ठोस उदाहरण हैं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका को लेकर लंबे समय से बहस होती रही है, लेकिन 1901 से 1942 तक की घटनाओं को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि संघ और उसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने अनेक मौकों पर आंदोलन में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से योगदान दिया। डॉ. हेडगेवार का राष्ट्रीय चेतना से जुड़ाव बचपन से ही था। ब्रिटिश विरोधी नारों के कारण स्कूल से उनका निष्कासन, असहयोग आंदोलन के दौरान डॉ. हेडगेवार की गिरफ्तारी और ‘पूर्ण स्वराज’ के समर्थन में उनके सार्वजनिक कार्यक्रम इसका प्रमाण हैं।

1930 के ‘जंगल सत्याग्रह’ में डॉ. हेडगेवार की गिरफ्तारी, शाखाओं में ‘पूर्ण स्वराज दिवस’ मनाना और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान स्वयंसेवकों का भूमिगत क्रांतिकारियों को शरण देना, झंडारोहण करना और ब्रिटिश दमन का सामना करना, ये सब उनकी सक्रियता के ठोस उदाहरण हैं। यही नहीं, कई स्वयंसेवकों ने गोली खाकर या फांसी पर चढ़कर अपने प्राण भी दिए। संघ ने स्वतंत्रता संग्राम को केवल राजनीतिक दृष्टि से नहीं देखा, बल्कि इसे राष्ट्रनिर्माण का व्यापक प्रयास माना। अनुशासन, सेवा और संगठन पर आधारित उसका कार्य ढांचा स्वतंत्रता प्राप्ति की सामाजिक और मानसिक तैयारी में योगदान देता रहा। इस तरह, यद्यपि संघ ने कांग्रेस या क्रांतिकारी संगठनों की तरह प्रत्यक्ष राजनीतिक संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में भले स्थान नहीं लिया, लेकिन उसके स्वयंसेवकों की सक्रिय भागीदारी, जनजागरण और संगठनात्मक सहयोग ने स्वतंत्रता आंदोलन को ज़मीनी और मानवीय आधार प्रदान किया। यह भूमिका इतिहास के पन्नों में एक महत्वपूर्ण अध्याय है।

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हम आपको बता दें कि 1925 में डॉ. हेडगेवार ने जब आरएसएस की स्थापना की थी तो उसके पीछे की उनकी सोच यह थी कि स्वतंत्रता संग्राम में सफलता के लिए अनुशासित, नैतिक और राष्ट्रवादी चरित्र वाले युवाओं का संगठन आवश्यक है। हालांकि संघ स्वयं को प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस की राजनीतिक लाइन में नहीं रखता था, परंतु समान राष्ट्रीय लक्ष्यों पर कार्य करता रहा। 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव का स्वागत संघ ने अपने शिविरों में समारोहपूर्वक किया था। 1930 में ‘पूर्ण स्वराज्य दिवस’ पर संघ शाखाओं में ध्वज पूजन और जनजागरण कार्यक्रम आयोजित किए गए थे।

1930 के ‘जंगल सत्याग्रह’ में डॉ. हेडगेवार ने हजारों ग्रामीणों को संबोधित किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें नौ महीने की कठोर कारावास की सजा मिली। इस अवधि में आरएसएस स्वयंसेवकों ने सत्याग्रहियों के सहयोग, राहत और संगठनात्मक कार्यों में योगदान दिया। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय संघ के स्वयंसेवकों ने सक्रिय योगदान दिया। बिहार, महाराष्ट्र और अन्य क्षेत्रों में झंडारोहण, भूमिगत गतिविधियों, और ब्रिटिश दमन के विरोध में कार्य करते हुए कई स्वयंसेवक मारे गए या फांसी की सजा पाए। ‘मररूर आषाढ़ कांड’ और भूमिगत क्रांतिकारियों को शरण देने जैसी घटनाएँ संघ के कुछ स्थानीय केंद्रों की प्रत्यक्ष भागीदारी को दर्शाती हैं।

आजादी के संघर्ष के दौरान संघ की शाखाएँ और स्वयंसेवक क्रांतिकारी नेताओं के लिए सुरक्षित ठिकाने, भोजन और चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराते थे। पांडुरंग पाटील, अचरतराव परसिद्धि और अन्य क्रांतिकारी नेताओं ने संघ के कार्यकर्ताओं की इस सहायता को स्वीकारा था। देखा जाये तो आरएसएस की भूमिका को लेकर इतिहासकारों और राजनीतिक वर्ग में भिन्न दृष्टिकोण हैं। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि संघ ने राष्ट्रीय चरित्र निर्माण, अनुशासन और सामाजिक संगठन के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम को अप्रत्यक्ष बल दिया। 1901 से 1942 तक का कालखंड संघ के लिए संगठनात्मक निर्माण और सीमित प्रत्यक्ष भागीदारी का मिश्रण था, जिसने स्वतंत्र भारत में उसकी वैचारिक एवं राजनीतिक दिशा को आकार दिया।

बहरहाल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास जितना गौरवशाली है, उतना ही यह राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील भी रहा है। लंबे समय तक यह धारणा बनाई गई कि आज़ादी का श्रेय मुख्य रूप से एक ही राजनीतिक दल और उसके नेतृत्व करने वाले परिवार को जाता है। परिणामस्वरूप, स्वतंत्रता संग्राम में अन्य संगठनों और व्यक्तियों— विशेषकर आरएसएस की भूमिका को या तो नगण्य दिखाया गया या पूरी तरह उपेक्षित कर दिया गया। आरएसएस के योगदानों का उल्लेख प्रायः इतिहास की मुख्यधारा की पुस्तकों में अनुपस्थित रहा। इस उपेक्षा के पीछे एक राजनीतिक तर्क भी निहित था— आज़ादी की कथा को एक केंद्रीय धारा में बाँधकर उसे किसी विशेष परिवार या नेतृत्व की छवि के साथ जोड़ देना। इससे न केवल ऐतिहासिक तथ्यों का संतुलन बिगड़ा, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की बहुलतावादी प्रकृति भी धुंधली हो गई।

अब समय है कि इतिहास को उसकी सम्पूर्णता में देखा जाए, जहाँ कांग्रेस, क्रांतिकारी दल, समाजवादी नेता, धार्मिक-सांस्कृतिक संगठन और जनजातीय विद्रोह, सब मिलकर आज़ादी की सामूहिक कहानी बनाते हैं। यह न केवल सच्चाई के प्रति न्याय होगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह समझने में भी मदद करेगा कि भारत की स्वतंत्रता किसी एक व्यक्ति, परिवार या संगठन का कार्य नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के संघर्ष, त्याग और बलिदान का परिणाम थी।

-नीरज कुमार दुबे

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