सिस्टम को जिंदा मजदूरों की परवाह नहीं, मरने पर मिलता है मुआवजा

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कोरोना जैसी भयावह महामारी के समय में आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि देश के सिस्टम को जब कोई मजदूर जिंदा शहरों से वापस घर जाने के लिए निकलता तब उसका कष्ट नजर क्यों नहीं आता है। मजदूर सड़क मार्ग पर नजर आता है तो उसको पुलिस मारती है।

कोरोना के चलते देश में लॉकडाउन-3 का समय चल रहा है, देश में हर तरफ जान बचाने के लिए अजीब खामोशी व्याप्त है। लेकिन यही खामोशी लगातार देश के मजदूर वर्ग की अनमोल जिंदगियों पर भारी पड़ रही है। लॉकडाउन के चलते अपनी रोजीरोटी व जमा-पूंजी गंवा चुके देश के शिल्पकार मजदूरों पर नाकाम व्यवस्था व लचर सिस्टम की जानलेवा मार पड़ रही है, देश के सिस्टम में व्याप्त अव्यवस्था के चलते उन बेचारों की अनमोल जानें जा रही हैं। लेकिन अफसोस बेचारे गरीब लाचार जिंदा मजदूर की जिंदगी का देश के सिस्टम में कोई मोल नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से मरने के पश्चात सरकार के द्वारा उनको दी जाने वाली मुआवजे की धनराशि सरकार के खजानों में मौजूद है। लॉकडाउन की वजह से रोजगार खत्म होने के चलते बेहद परेशान मजदूर भूखे-प्यासे तिल-तिल कर मरने के लिए मजबूर हैं, सिस्टम धृतराष्ट्र की तरह चुपचाप महलों में बैठकर मजदूरों पर अत्याचार होता देख रहा है। सिस्टम के द्वारा मजदूरों के लिए लॉकडाउन के लगभग 45 दिन बीतने के बाद भी कोई अच्छी व्यवस्था नहीं बन पा रही हैं। किंतु उनके मृत शरीर को लाने की व्यवस्था सरकार के द्वारा की जा रही है, मरने के बाद उनकी जान का मोल लगाया जा रहा है। जिस तरह से महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 8 मई के तड़के दुर्घटना में मजदूर मारे गये थे, उसके बाद भयंकर आपदा के समय में भी देश में राजनीति चरम पर है, जिस तरह से कुछ मजदूरों का एक दल अपने घर मध्य प्रदेश जाने के लिए महाराष्ट्र के जालना से 60 किलोमीटर दूर भुसावल रेलवे स्टेशन पर श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ कर अपने घर जाने के लिए निकला था, तो उन बेचारे लाचार मजबूर 16 मजदूरों की यह यात्रा मालगाड़ी की चपेट में आने के कारण जीवन की अंतिम यात्रा बन जायेगी, शायद किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा। इस बेहद दर्दनाक घटना के घटित होने के बाद देश में मजदूरों के हितों के नाम पर मजदूरों का हितैषी बनने के लिए राजनीतिक दलों में राजनीति बहुत तेज हो गयी है। लेकिन इन बेचारे लाचार जिंदा मजदूरों के लिए शायद हमारे देश के कर्ताधर्ताओं, सत्ता के शीर्ष पर उनकी वोटों के बदौलत बैठे राजनेताओं व सिस्टम के पास उनका दुख दर्द व जीवन यापन में आ रही दुश्वारियों को समझने का वक्त नहीं था, आज वही सारा सिस्टम उनके लिए घड़ियाली आँसू बहा रहा है, वह उनको श्रद्धांजलि अर्पित करके अपने कदम की बखूबी इतिश्री कर रहा है।

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इस दर्दनाक घटना के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दुख जताते हुए मृतक मजदूरों के परिवार को 5-5 लाख रुपए देने की घोषणा कर दी, साथ ही मध्य प्रदेश सरकार ने एक विशेष विमान से एक टीम औरंगाबाद भी भेजी थी। इस टीम ने जिंदा बचे घायल मजदूरों के उपचार सहित मृतक मजदूरों के शवों को लाने व उनके अंतिम संस्कार करने की समुचित व्यवस्था की थी। मध्य प्रदेश के बाद महाराष्ट्र सरकार ने भी मृतकों के परिवारों को 5-5 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा कर दी। सिस्टम के मारे इन गरीब लाचार मजदूरों पर 45 किलोमीटर पैदल चलने के बाद थकान इतनी हावी हो गयी थी कि इन्हें मालगाड़ी के आने का पता ही नहीं चल पाया और ये बेचारे गहरी नींद में सोते रहे और उनके ऊपर से मालगाड़ी गुजर गई। हादसे के बाद जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के लिए सरकार ने उच्च स्तरीय जाचं के आदेश दे दिये हैं, जाचं में किसी छोटे से निर्दोष मुलाजिम को बली का बकरा बनाकर खानापूर्ति कर ली जायेगी। लेकिन सबसे दुखद व अफसोस की बात यह है कि जिन लोगों को सरकार जिंदा रहते घर वापसी के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं करवा रही थी, आज वही सरकार उनकी मृत देह को घर पहुंचाने के लिए स्पेशल ट्रेन चलवाती है। हालात देखकर लगता है कि देश में जिंदा मजदूर की अनमोल जिंदगी का हमारे सिस्टम के कर्ताधर्ताओं की नजरों में शायद ही कोई मोल हो।

मैं महामारी के समय में दर-दर की ठोकर खाने पर मजबूर हो गये लाचार गरीब मजदूरों की इस बेबसी की हालात पर अपनी चंद पक्तियों के माध्यम से देश के नीतिनिर्माताओं से कहना चाहता हूँ कि-

"मैं देश का निर्माण करने वाला

मेहनतकश हिम्मती शिल्पकार हूँ 

मैं बुलंद हौसले वाला एक मजदूर हूँ

घर वापसी के लिए पैदल चलते-चलते

पड़ गये मेरे पांव में छाले पड़ गये मेरी रोटी के लाले

हे देश के भाग्यविधाता सरकार व सिस्टम

आपदाकाल में मेरे दुख दर्द से यूं ना खेलो

मेरी हिम्मत को सिस्टम तुम यूं ना इरादतन तोड़ो

हे भाग्यविधाता मूझे यूं मजबूर व लाचार ना बनाओ

मुझे अपने ही देश में यूं पराया इंसान ना बनाओ ।।

कोरोना जैसी भयावह महामारी के समय में आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि देश के सिस्टम को जब कोई मजदूर जिंदा शहरों से वापस घर जाने के लिए निकलता तब उसका कष्ट नजर क्यों नहीं आता है। मजदूर सड़क मार्ग पर नजर आता है तो उसको पुलिस मारती है, रेलवे लाईन या अन्य वैकल्पिक मार्गों पर जाता है तो उसको उस बेहद कठिन मार्ग की दुश्वारियां और मजदूर लाचारी मारती है। जिस तरह से आपदाकाल में मजदूरों की जिंदगी पर उनकी मजबूरी लाचारी गरीबी भारी पड़ने की खबरें देश के अलग-अलग भागों से आ रही हैं, वह देशहित में व समाजहित में बिल्कुल भी उचित नहीं है, आने वाले समय में उसके दूरगामी परिणाम नजर आयेंगे, हम महानगरों में काम करवाने के लिए मजदूरों के लिए तरस जायेंगे। जिस तरह से कोई मजदूर साईकिल पर जाते हुए दम तोड़ रहा है, कोई पैदल जाते हुए दम तोड़ रहा है, वह उनकी बेबसी व हमारे देश के सिस्टम की खामी को उजागर कर रहा है। अपना घरबार छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में अपने घरों से दूर आकर देश के विकास में बहुमूल्य भागीदारी निभाने वाले मेहनतकश मजदूर अब व्यवस्था व सिस्टम की लापरवाही और जीवन बचाने की लाचारी के चलते दिन-प्रतिदिन मजबूर होते जा रहे हैं। हमारे देश में लगभग 50 करोड़ मजदूर हैं, जिनके कंधों पर देश का उज्ज्वल भविष्य टिका हुआ है, जिनके दुख दर्द को समय रहते हमारे देश के कर्ताधर्ता, नीति-निर्माता व सिस्टम को अच्छे ढंग से समझना होगा। 

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देश में लॉकडाउन चलते अब धीरे-धीरे लगभग 45 दिन हो गये है और हमारा सिस्टम अभी तक भी मजदूरों को यह विश्वास दिलाने में नाकाम रहा है कि आप जहां हो वहां आराम से रहो, आपकी रोजी-रोटी सुरक्षित है, सरकार उसका पूर्ण रूप से ध्यान रखेगी, हमारे सिस्टम की हनक व राजशाही कार्यशैली अधिकांश जगह गरीब मजदूरों का विश्वास जीतने में नाकाम रही है, क्योंकि वह उनके जीवन के लिए आवश्यक जरूरतों को समय से पूरा करने में नाकाम रहा है। इसलिए मजदूर तेजी से शहरों को छोड़कर अपने घर गांवों की ओर पलायन कर रहे हैं। रही-सही कसर लॉकडाउन के दौरान कुछ ज्यादा बुद्धिमान लोगों की जमात ने देश की रीढ़ मजदूरों को अपने ही देश में प्रवासी मजदूरों का दर्जा देकर बेगाना बनाकर पूरी कर दी है, उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को कम करने के लिए स्थानीय मजदूर व अन्य राज्यों के मजदूरों के बीच दीवार खड़ी करने का कार्य किया है, जिसके चलते कहीं ना कहीं सिस्टम का प्रवासी मजदूरों के साथ सौतेलापन का रवैया रहा। जिससे उनका सिस्टम पर विश्वास कम हुआ। 

लॉकडाउन शुरू होते ही सभी सरकारों को स्पष्ट नजर आ रहा था कि अगर उन्होंने मजदूरों को वापस जाने दिया तो आने वाले समय में दोबारा कल-कारखानों को चालू करना व अन्य कार्यों के लिए मजदूरों को वापस लाना आसानी से संभव नहीं है। उसके चलते सभी राज्यों के द्वारा प्रवासी मजदूरों को लेकर जो आधेअधूरे मन से मदद करने का रवैया अपनाया गया है, वह कहीं से भी बिल्कुल ठीक नहीं है। अधिकांश राज्यों ने पहले तो मजदूरों को समझा-बुझाकर नियम कायदे कानून का हवाला देकर रोक कर रखा और फिर जब लगातार लॉकडाउन बढ़ता देखा तो उसने बहुत ही गैरजिम्मेदाराना तरीके से व चतुराई से मजदूरों की जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने का प्रयास किया, जो आपदा के समय में कहीं से भी उचित नहीं है। अब स्थिति यह हो रही है बड़ी संख्या में मजदूर अपने घर वापस जाने के लिए उतावले हैं, जिसके मद्देनजर केंद्र सरकार के द्वारा ट्रेन चलवाई गयी है, तो वहां पर भी खाली जेब वाले लाचार गरीब मजदूरों से टिकट के दाम वसूले जा रहे हैं, मजदूरों के टिकट के मसले को लेकर देश में राजनीतिक दलों में जमकर झूठ-प्रपंच की ओछी राजनीति भी हो रही है।

वहीं हमारी सरकार विदेश में फंसे लोगों को वापस घर लाने के लिए एक बहुत ही अच्छा "वंदे भारत मिशन" चला रही है और वहीं दूसरी तरफ देश में फंसे लाचार गरीब मजदूरों की घर वापसी के लिए अघोषित "ड़डे मारो मिशन" चलाकर मजदूर को जबरन रोका जा रहा है। देश में मजदूरों की मौजूदा हालात को देखकर यह स्पष्ट है कि कोई भावी इतिहासकार जब इस समय का इतिहास लिखेगा तो वह इसे मजदूरों को बंधक बनाये रखने के रूप में इतिहास में दर्ज करेगा। देश की तरक्की को नयी दिशा देने वाले मजदूरों के साथ बंधकों की तरह का व्यवहार कहीं से भी न्यायोचित नहीं है।

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वैसे अगर हमारे देश के नीति-निर्माता चाहें तो हमारी रेलवे की क्षमता इतनी है कि वो कुछ दिनों में ही सारे मजदूरों को वापस उनके घर पहुंचाने की क्षमता रखती है। बस जरूरत है तो केवल सरकार के स्तर पर दृढ इच्छा शक्ति की है और देश के नीति-निर्माताओं के स्तर पर समय से निर्णय लेने की क्षमता की है। अगर सरकार के स्तर पर समय से यह फैसला हो जाता तो केवल कुछ ही दिनों में रेलवे के द्वारा सारे मजदूरों को घरों तक पहुंचाया जा सकता था और देश में मजदूरों की घबराहट के चलते बने आपाधापी के माहौल से बचा जा सकता था। वैसे भी आज के समय में सारी ट्रेन खाली खड़ी है और सरकार चाहे तो जो सिस्टम रोज भारी संख्या में लोगों को ढोता था उसी रेलवे के द्वारा मजदूरों को सोशल डिस्टेंसिंग बनाते हुए उनके गंतव्य स्थल तक बेहद आसानी से पहुंचाया जा सकता है। वैसे भी कोरोना काल में ट्रेन के अलावा देश में परिवहन के बाकी सभी साधन फिर भी बहुत ज्यादा खतरों से भरे हैं। इसलिए अभी भी सरकार को उहापोह की स्थिति से बाहर निकल कर मजदूरों के बारे में समय रहते स्पष्ट रणनीति बनानी चाहिए। सरकार को इस कन्फ्यूजन से बाहर निकलना होगा कि मजदूर को रोकना है या घर वापस भेजना है, रोकना है तो उनकी रोजी-रोटी का इंतजाम अच्छे से करना होगा और घर वापस भेजना है तो निशुल्क रेल सेवा को तैयार करना होगा। तब ही पैदल, साईकिल, रिक्शा, थ्रीव्हीलर, ढेली व मालवाहक वाहनों में छिपकर जान की बाजी लगाकर श्रमिकों का जाना रुकेगा। नहीं तो कोरोना के चलते उत्पन्न आपदाकाल में अपनी लाचारी मजबूरी व गरीबी से परेशान देश के शिल्पकार मजदूरों के साथ आये दिन तरह-तरह के दर्दनाक हादसे घटित होते रहेंगे और सरकार बाद में मृतकों के परिजनों को मुआवजा धनराशि बांट़कर अपनी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन बहुत अच्छे से करके अपने दायित्वों को निभाती रहेगी।

-दीपक कुमार त्यागी

(स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार व रचनाकार)

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